NCERT Solutions for Class 10 Hindi Sanchayan Chapter 2 Sapnon ke se din

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Sapnon ke se din Class 10 – सपनों के-से दिन Chapter 2

कक्षा 10 हिंदी – पाठ 2 (सपनों के-से दिन)

Sapnon ke se din Class 10 Hindi Sanchayan Bhag-2 Chapter 2 (सपनों के-से दिन), Summary, Notes, Explanation, Questions Answers

Sapnon ke se din summary of CBSE Class 10 Hindi Sanchayan Bhag-2 lesson 2 along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson सपनों के-से दिन , all the exercises and Question and Answers given here.

यहाँ हम हिंदी कक्षा 10 “संचयन भाग-2” के पाठ-2 “सपनों के-से दिन” कहानी के पाठ-प्रवेश, पाठ-सार, पाठ-व्याख्या, कठिन-शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर, इन सभी के बारे में जानेंगे।

Author Intro – लेखक परिचय (सपनों के-से दिन)

लेखक – गुरदयाल सिंह

जन्म – 10 जनवरी 1933

Chapter Introduction – पाठ प्रवेश (सपनों के-से दिन)

बचपन में भले ही सभी सोचते हों की काश! हम बड़े होते तो कितना अच्छा होता। परन्तु जब सच में बड़े हो जाते हैं, तो उसी बचपन की यादों को याद कर-करके खुश हो जाते हैं। बचपन में बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जो उस समय समझ में नहीं आती क्योंकि उस समय सोच का दायरा सिमित होता है। और ऐसा भी कई बार होता है कि जो बातें बचपन में बुरी लगती है वही बातें समझ आ जाने के बाद सही साबित होती हैं।
प्रस्तुत पाठ में भी लेखक अपने बचपन की यादों का जिक्र कर रहा है कि किस तरह से वह और उसके साथी स्कूल के दिनों में मस्ती करते थे और वे अपने अध्यापकों से कितना डरते थे। बचपन में लेखक अपने अध्यापक के व्यवहार को नहीं समझ पाया था उसी का वर्णन लेखक ने इस पाठ में किया है।

Sapnon Ke Se Din Summary – पाठ सार (सपनों के-से दिन)

लेखक कहता है कि उसके बचपन में उसके साथ खेलने वाले बच्चों का हाल भी उसी की तरह होता था। सभी के पाँव नंगे, फटी-मैली सी कच्छी और कई जगह से फटे कुर्ते , जिनके बटन टूटे हुए होते थे और सभी के बाल बिखरे हुए होते थे। जब सभी खेल कर, धूल से लिपटे हुए, कई जगह से पाँव में छाले लिए, घुटने और टखने के बीच का टाँग के पीछे माँस वाले भाग पर खून के ऊपर जमी हुई रेत-मिट्टी से लथपथ पिंडलियाँ ले कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस नहीं खाती बल्कि उल्टा और ज्यादा पीट देतीं। कई बच्चों के पिता तो इतने गुस्से वाले होते कि जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो यह भी ध्यान नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते कि उसे चोट कहाँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन सभी बच्चे फिर से खेलने के लिए चले आते। लेखक कहता है कि यह बात लेखक को तब समझ आई जब लेखक स्कूल अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण ले रहा था। वहाँ लेखक ने बच्चों के मन के विज्ञान का विषय पढ़ा था।
लेखक कहता है कि कुछ परिवार के बच्चे तो स्कूल ही नहीं जाते थे और जो कभी गए भी, पढाई में रूचि न होने के कारण किसी दिन बस्ता तालाब में फेंक आए और उनके माँ-बाप ने भी उनको स्कूल भेजने के लिए कोई जबरदस्ती नहीं की। यहाँ तक की राशन की दुकान वाला और जो किसानों की फसलों को खरीदते और बेचते हैं वे भी अपने बच्चों को स्कूल भेजना जरुरी नहीं समझते थे। वे कहते थे कि जब उनका बच्चा थोड़ा बड़ा हो जायगा तो पंडत घनश्याम दास से हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी प्राचीन लिपि पढ़वाकर सीखा देंगे और दुकान पर खाता लिखवाने लगा देंगे।
लेखक कहता है कि बचपन में किसी को भी स्कूल के उस कमरे में बैठ कर पढ़ाई करना किसी कैद से कम नहीं लगता था। बचपन में घास ज्यादा हरी और फूलों की सुगंध बहुत ज्यादा मन को लुभाने वाली लगती है। लेखक कहता है की उस समय स्कूल की छोटी क्यारियों में फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे जिनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी सफ़ेद कलियाँ भी हुआ करतीं थीं। ये कलियाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं कि लेखक और उनके साथी चपरासी से छुप-छुपा कर कभी-कभी कुछ फूल तोड़ लिया करते थे। परन्तु लेखक को अब यह याद नहीं कि फिर उन फूलों का वे क्या करते थे। लेखक कहता है कि शायद वे उन फूलों को या तो जेब में डाल लेते होंगे और माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती होगी या लेखक और उनके साथी खुद ही, स्कूल से बाहर आते समय उन्हें बकरी के मेमनों की तरह खा या ‘चर’ जाया करते होगें।
लेखक कहता है कि उसके समय में स्कूलों में, साल के शुरू में एक-डेढ़ महीना ही पढ़ाई हुआ करती थी, फिर डेढ़-दो महीने की छुटियाँ शुरू हो जाती थी। हर साल ही छुटियों में लेखक अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर चले जाता था। वहाँ नानी खूब दूध-दहीं, मक्खन खिलाती, बहुत ज्यादा प्यार करती थी। दोपहर तक तो लेखक और उनके साथी उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो उनका जी करता वह माँगकर खाने लगते। लेखक कहता है कि जिस साल वह नानी के घर नहीं जा पाता था, उस साल लेखक अपने घर से दूर जो तालाब था वहाँ जाया करता था। लेखक और उसके साथी कपड़े उतार कर पानी में कूद जाते, फिर पानी से निकलकर भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर रेत के ऊपर लोटने लगते फिर गीले शरीर को गर्म रेत से खूब लथपथ करके फिर उसी  किसी ऊँची जगह जाकर वहाँ से तालाब में छलाँग लगा देते थे। लेखक कहता है कि उसे यह याद नहीं है कि वे इस तरह दौड़ना, रेत में लोटना और फिर दौड़ कर तालाब में कूद जाने का सिलसिला पाँच-दस बार करते थे या पंद्रह-बीस बार।
लेखक कहता है कि जैसे-जैसे उनकी छुट्टियों के दिन ख़त्म होने लगते तो वे लोग दिन गिनने शुरू कर देते थे। डर के कारण लेखक और उसके साथी खेल-कूद के साथ-साथ तालाब में नहाना भी भूल जाते। अध्यापकों ने जो काम छुट्टियों में करने के लिए दिया होता था, उसको कैसे करना है इस बारे में सोचने लगते।  काम न किया होने के कारण स्कूल में होने वाली पिटाई का डर अब और ज्यादा बढ़ने लगता। लेखक बताता है कि उसके कितने ही सहपाठी ऐसे भी होते थे जो छुट्टियों का काम करने के बजाय अध्यापकों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझते। ऐसे समय में लेखक और उसके साथी का सबसे बड़ा ‘नेता’ ओमा हुआ करता था। ओमा की बातें, गालियाँ और उसकी मार-पिटाई का ढंग सभी से बहुत अलग था। वह देखने में भी सभी से बहुत अलग था। उसका मटके के जितना बड़ा सिर था, जो उसके चार बालिश्त (ढ़ाई फुट) के छोटे कद के शरीर पर ऐसा लगता था जैसे बिल्ली के बच्चे के माथे पर तरबूज रखा हो। बड़े सिर पर नारियल जैसी आँखों वाला उसका चेहरा बंदरिया के बच्चे जैसा और भी अजीब लगता था। जब भी लड़ाई होती थी तो वह अपने हाथ-पाँव का प्रयोग नहीं करता था, वह अपने सिर से ही लड़ाई किया करता था।
लेखक कहता है कि वह जिस स्कूल में पढता था वह स्कूल बहुत छोटा था। उसमें केवल छोटे-छोटे नौ कमरे थे, जो अंग्रेजी के अक्षर एच (H) की तरह बने हुए थे। दाईं ओर का पहला कमरा हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा जी का था। स्कूल की प्रेयर (प्रार्थना) के समय वह बाहर आते थे और सीधी पंक्तियों में कद के अनुसार खड़े लड़कों को देखकर उनके गोरा चेहरे पर ख़ुशी साफ़ ही दिखाई देती थी। मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे, वे लड़कों की पंक्तियों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते रहते थे कि कौन सा लड़का पंक्ति में ठीक से नहीं खड़ा है। उनकी धमकी भरी डाँट तथा लात-घुस्से के डर से लेखक और लेखक के साथी पंक्ति के पहले और आखरी लड़के का ध्यान रखते, सीधी पंक्ति में बने रहने की पूरी कोशिश करते थे। मास्टर प्रीतम चंद बहुत ही सख्त अध्यापक थे। परन्तु हेडमास्टर शर्मा जी उनके बिलकुल उलट स्वभाव के थे। वह पाँचवीं और आठवीं कक्षा को अंग्रेजी स्वयं पढ़ाया करते थे। किसी को भी याद नहीं था कि पाँचवी कक्षा में कभी भी उन्होंने हेडमास्टर शर्मा जी को किसी गलती के कारण किसी को मारते या डाँटते देखा या सूना हो।
लेखक कहता है कि बचपन में स्कूल जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था परन्तु एक-दो कारणों के कारण कभी-कभी स्कूल जाना अच्छा भी लगने लगता था। मास्टर प्रीतमसिंह जब परेड करवाते और मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे। फिर जब वे राइट टर्न या लेफ्ट टार्न या अबाऊट टर्न कहते तो सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है । स्काउटिंग करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों।
लेखक कहता है कि हर साल जब वह अगली कक्षा में प्रवेश करता तो उसे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं थी। उसके स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी एक धनि घर के लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता था तो शर्मा जी उस लड़के की एक साल पुरानी पुस्तकें लेखक के लिए ले आते थे। लेखक के घर में किसी को भी पढ़ाई में कोई रूचि नहीं थी। यदि नयी किताबें लानी पड़तीं तो शायद इसी बहाने लेखक की पढ़ाई तीसरी-चौथी कक्षा में ही छूट जाती।
लेखक कहता है कि जब लेखक स्कूल में था तब दूसरे विश्व युद्ध का समय था। लोगो को फ़ौज में भर्ती करने के लिए जब कुछ अफसर गाँव में आते तो उनके साथ कुछ नौटंकी वाले भी आया करते थे। वे रात को खुले मैदान में तम्बू लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी के दृश्य दिखाकर फ़ौज में भर्ती होने के लिए आकर्षित किया करते थे। इन्हीं सारी बातों की वजह से कुछ नौजवान फ़ौज में भरती होने के लिए तैयार भी हो जाया करते थे।
लेखक कहता है कि उन्होंने कभी भी मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में मुस्कुराते या हँसते नहीं देखा था। उनका छोटा कद, दुबला-पतला परन्तु पुष्ट शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यानि चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े बच्चों  को भयभीत करने वाली होती थी। लेखक अपनी पूरी ज़िन्दगी में उस दिन को कभी नहीं भूल पाया जिस दिन मास्टर प्रीतमचंद लेखक की चौथी कक्षा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। अभी उन्हें पढ़ते हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने उन्हें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आज्ञा दी कि कल इसी घंटी में केवल जुबान के द्वारा ही सुनेंगे। दूसरे दिन मास्टर प्रीतमचंद ने बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मास्टर जी ने गुस्से में चिल्लाकर सभी विद्यार्थी को कान पकड़कर पीठ ऊँची रखने को कहा। जब लेखक की कक्षा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी स्कूल में नहीं थे। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि उन्होंने पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को सहन नहीं किया और वह भड़क गए थे। लेखक कहता है कि जिस दिन से हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी प्रीतमचंद को निलंबित किया था उस दिन के बाद यह पता होते हुए भी कि पीटी प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर ‘बहाल’ नहीं करेंगें तब तक वह स्कूल में कदम नहीं रख सकते, फिर भी जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो लेखक की और उसकी कक्षा के सभी बच्चों की छाती धक्-धक् करने लगती और लगता जैसे छाती फटने वाली हो।
लेखक कहता है कि कई सप्ताह तक पीटी मास्टर स्कूल नहीं आए। लेखक और उसके साथियों को पता चला कि बाज़ार में एक दूकान के ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खिड़कियों वाला चौबारा (वह कमरा जिसमें चारों और से खिड़कियाँ और दरवाजें हों) किराए पर ले रखा था, पीटी मास्टर वहीं आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के विद्यार्थी लेखक और उसके साथियों को बताया करते थे कि उन्हें निष्कासित होने की थोड़ी सी भी चिंता नहीं थी। जिस तरह वह पहले आराम से पिंजरे में रखे दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर खिलाते थे, वे आज भी उसी तरह से रह रहे हैं। लेखक और उसके साथियों के लिए यह चमत्कार ही था कि जो प्रीतमचंद पट्टी या डंडे से मार-मारकर विद्यार्थियों की चमड़ी तक उधेड़ देते, वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें कैसे कर लेते थे। लेखक स्वयं में सोच रहा था कि क्या तोतों को उनकी आग की तरह जलती, भूरी आँखों से डर नहीं लगता होगा। लेखक और उसके साथियों की समझ में ऐसी बातें तब नहीं आ पाती थीं, क्योंकि तब वे बहुत छोटे हुआ करते थे। वे तो बस पीटी मास्टर के इस रूप को एक तरह से अद्भुत ही मानते थे।

Sapnon Ke Se Din Explanation – पाठ व्याख्या (सपनों के-से दिन)

मेरे साथ खेलने वाले सभी बच्चों का हाल एक-सा होता। नंगे पाँव, फटी-मैली सी कच्छी और टूटे बटनों वाले कई जगह से फटे कुर्ते और बिखरे बाल। जब लकड़ी के ढेर पर चढ़कर खेलते नीचे को भागते तो गीरकर कई तो जाने कहाँ-कहाँ चोट खा लेते और पहले ही फाटे-पुराने कुर्ते तार-तार हो जाते। धूल भरे, कई जगह से छिले पाँव, पिंडलियाँ या लहू के ऊपर जमी रेत-मिट्टी से लथपथ घुटने ले कर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस खाने की जगह और पिटाई करतीं। कइयों के बाप बड़े गुस्सैल थे। पीटने लगते तो यह ध्यान भी नहीं रखते  कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है या उसके कहाँ चोट लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन फिर खेलने चले आते। (यह बात तब ठीक से समझ आई जब स्कूल अध्यापक बनने के लिए एक ट्रेनिंग करने गया और वहाँ बाल-मनोविज्ञान का विषय पढ़ा। ऐसी बातों के बारे में तभी जान पाया कि बच्चों को खेलना क्यों इतना अच्छा लगता है कि बुरी तरह पिटाई होने पर भी फिर खेलने चले आते हैं।)

पिंडलियाँ – घुटने और टखने के बीच का पिछला मांसल भाग
गुस्सैल – गुस्से वाला
ट्रेनिंग – प्रशिक्षण
बाल-मनोविज्ञान – बच्चों के मन का विज्ञान या ज्ञान

लेखक कहता है कि उसके बचपन में उसके साथ खेलने वाले बच्चों का हाल भी उसी की तरह होता था। लेखक के कहने का अभिप्राय है की सभी के पाँव नंगे होते थे, फटी-मैली सी कच्छी और कई जगह से फटे कुर्ते पहने हुए होते थे, जिनके बटन टूटे हुए होते थे और सभी के बाल बिखरे हुए होते थे। जब खेल-खेल में लकड़ी के ढेर से निचे उतरते हुए भागते, तो बहुत से बच्चे अपने-आपको चोट लगा देते थे और जो कुरता पहले से ही फटा-पुराना होता  था, वह और ज्यादा फट जाता था। 

जब सभी बच्चे दिन भर धूल में खेल कर और कई जगह चोट खाए हुए खून के ऊपर जमी हुई रेत-मिट्टी से लथपथ पिंडलियाँ (घुटने और टखने के बीच का टाँग के पीछे माँस वाले भाग) ले कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस नहीं खाती बल्कि उल्टा और ज्यादा पीट देतीं। कई बच्चों के पिता तो इतने गुस्से वाले होते कि जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो यह भी ध्यान नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते कि उसे चोट कहाँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन सभी बच्चे फिर से  खेलने के लिए चले आते।
लेखक कहता है कि यह बात लेखक को तब समझ आई जब लेखक स्कूल अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण ले रहा था। वहाँ लेखक ने बच्चों के मन के विज्ञान का विषय पढ़ा था और तभी लेखक ऐसी बातों के बारे में जान पाया था कि इतनी बुरी पीटाई के बाद भी बच्चों को खेलना इतना ज्यादा क्यों पसंद हैं?

मेरे साथ खेलने वाले अधिकतर साथी हमारे जैसे ही परिवारों से हुआ करते थे। सारे मुहल्ले में बहुत परिवार तो, हमारी तरह आस-पास के गाँवों से ही आकर बसे थे। दो-तीन घर, साथ ही उजड़ी-सी गली में रहने वाले लोगों के थे। हमारी सभी की आदतें भी कुछ मिलती-जुलती थीं। उनमें से अधिक तो स्कूल जाते ही न थे, जो कभी गए भी, पढाई में रूचि न होने के कारण किसी दिन बस्ता तालाब में फेंक आए और फिर स्कूल गए ही नहीं, न ही माँ-बाप ने जबरदस्ती भेजा। यहाँ तक की परचूनिये, आढ़तिये भी अपने बच्चों को स्कूल भेजना जरुरी नहीं समझते। कभी किसी स्कूल अध्यापक से बात होती तो कहते-मास्टर जी हमने  इसे क्या तहसीलदार लगवाना है। थोड़ा बड़ा हो जाए तो पंडत घनश्याम दास से लंडे पढ़वा कर दूकान पर बहियाँ लिखने लगा लेंगे। पंडत छह-आठ महीनें में लंडे और मुनीमी का सभी काम सीखा देगा। वहाँ तो अभी तक अलिफ़-बे जिम-च भी नहीं सीख पाया।

परचूनिये – राशन की दुकान वाला
आढ़तिये – जो किसानों की फसलों को खरीदते और बेचते हैं
लंडे – हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी प्राचीन लिपि
बहियाँ – खाता
मुनीमी – दुकानदारी

लेखक कहता है कि बचपन में उसके साथ खेलने वाले उसके ज्यादातर साथी उसी के परिवार की तरह के थे। लेखक का परिवार आसपास के गाँव से आकर उस गाँव में बसा था और लेखक कहता है कि उसी के परिवार की तरह बहुत से परिवार दूसरे गाँव से आकर उस गाँव में बसे थे। साथ ही दो-तीन घर उजड़ी-सी गली में रहने वाले लोगों के थे। उन सभी की बहुत सी आदतें भी मिलती-जुलती थीं। उन परिवारों में से बहुत के बच्चे तो स्कूल ही नहीं जाते थे और जो कभी गए भी, पढाई में रूचि न होने के कारण किसी दिन बस्ता तालाब में फेंक आए और फिर स्कूल गए ही नहीं और उनके माँ-बाप ने भी उनको स्कूल भेजने के लिए कोई जबरदस्ती नहीं की। यहाँ तक की राशन की दुकान वाला और जो किसानों की फसलों को खरीदते और बेचते हैं वे भी अपने बच्चों को स्कूल भेजना जरुरी नहीं समझते थे।

अगर कभी कोई स्कूल का अध्यापक उन्हें समझाने की कोशिश करता तो वे अध्यापक को यह कह कर चुप करवा देते कि उन्हें अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर कोई तहसीलदार तो बनाना नहीं है। जब उनका बच्चा थोड़ा बड़ा हो जायगा तो पंडत घनश्याम दास से हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी प्राचीन लिपि पढ़वाकर सीखा देंगे और दूकान पर खाता लिखवाने लगा देंगे। 

पंडत छह-आठ महीनें में हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी प्राचीन लिपि और दुकानदारी का सभी काम सीखा देगा। वैसे भी स्कूल में अभी तक अलिफ़-बे जिम-च (उर्दू भाषा की वर्णमाला ) भी नहीं सीख पाया है। ऐसा उत्तर मिलने पर अध्यापक कुछ नहीं बोल पता था।
हमारे आधे से अधिक साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब बहुत छोटे थे तो उनकी बोली कम समझ पाते। उनके कुछ शब्द सुनकर हँसी आने लगती। परन्तु खेलते ही सभी एक दूसरे की बात खूब अच्छी तरह समझ लेते।
पता भी नहीं चला कि लोकोक्ति अनुसार ‘एह खेडण दे दिन चार’ कैसे, कब बीत गए। (हम में से कोई भी ऐसा न था जो स्कूल के कमरे में बैठकर पढ़ने को ‘कैद’ न समझता हो।) कुछ अपने माँ-बाप के साथ जैसा भी था, काम करने लगे।

लोकोक्ति – लोगों के द्वारा कही गयी उक्ति/बात
खेडण – खेलने के

लेखक कहता है कि उसके बचपन के ज्यादातर साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब लेखक छोटा था तो उनकी बातों को बहुत कम समझ पाता था और उनके कुछ शब्दों को सुन कर तो लेखक को हँसी आ जाती थी। परन्तु जब सभी खेलना शुरू करते तो सभी एक-दूसरे की बातों को बहुत अच्छे से समझ लेते थे।
लेखक कहता है कि उसे पता भी नहीं चला कि बचपन के वो दिन कब बीत गए। लोगों के द्वारा कही गयी उक्ति/बात लेखक को हमेशा याद आती कि ‘खेलने के दिन चार ही होते हैं’। लेखक कहता है कि बचपन में किसी को भी स्कूल के उस कमरे में बैठ कर पढ़ाई करना किसी कैद से कम नहीं लगता था। बड़े हो कर लेखक के कई साथी अपने माँ-बाप के काम को ही आगे बढ़ाने में लग गए।
बचपन में घास अधिक हरी और फूलों की सुगंध अधिक मनमोहक लगती है। यह शब्द शायद आधी शती पहले किसी पुस्तक में पढ़े थे, परन्तु आज तक याद है। याद रहने का कारण यही है कि यह वाक्य बचपन की भावनाओं, सोच-समझ के अनुकूल होगा। परन्तु स्कूल के अंदर जाने से रास्ते के दोनों ओर जो अलियार के बड़े ढंग से कटे-छाँटे झाड़ उगे थे (जिन्हें हम डंडियाँ कहा करते) उनके नीम के पत्तों जैसे पत्तों की महक आज तक भी आँख मूँद कर महसूस कर सकता हूँ। उन दिनों स्कूल की छोटी क्यारियों में फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे जिनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी सफ़ेद कलियाँ भी हुआ करतीं। ये कलियाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं कि हम चंदू चपड़ासी से आँख बचाकर कभी-कभार एक-दो तोड़ लिया करते। उनकी बहुत तेज़ सुगंध आज भी महसूस कर पता हूँ,

परन्तु यह याद नहीं कि उन्हें तोड़कर, कुछ देर सूँघकर फिर क्या किया करते। (शायद जेब में डाल लेते, माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती या हम ही, स्कूल से बाहर आते उन्हें बकरी के मेमनों की भाँति ‘चर’ जाया करते। )

अलियार – गली की तरह का लंबा सीधा रास्ता
चपड़ासी – चपरासी `

लेखक कहता है कि बचपन में घास ज्यादा हरी और फूलों की सुगंध बहुत ज्यादा मन को लुभाने वाली लगती है। ये शब्द लेखक ने शायद आधी सदी पहले किसी किताब में पढ़े होंगे, परन्तु लेखक को आज भी ये पंक्ति याद है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि ये पंक्ति बचपन की भावनाओं और बच्चों की सोच-समझ के अनुकूल है। लेखक कहता है कि  स्कूल के अंदर जाने वाले रास्ते के दोनों ओर गली की तरह के लम्बे सीधे रास्ते में बड़े ढंग से कटे-छाँटे झाड़ उगे थे जिन्हें लेखक और उनके साथी डंडियाँ कहा करते थे। उनसे नीम के पत्तों की तरह महक आती थी, जो आज भी लेखक अपनी आँखों को बंद करके महसूस कर सकता है। लेखक कहता है की उस समय स्कूल की छोटी क्यारियों में फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे जिनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी सफ़ेद कलियाँ भी हुआ करतीं थीं। ये कलियाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं कि लेखक और उनके साथी चपरासी से छुप-छुपा कर कभी-कभी कुछ फूल तोड़ लिया करते थे। उनकी बहुत तेज़ सुगंध लेखक आज भी महसूस कर सकता है। परन्तु लेखक को अब यह याद नहीं कि उन फूलों को तोड़कर, कुछ देर सूँघकर फिर उन फूलों का वे क्या करते थे।

लेखक कहता है कि शायद वे उन फूलों को या तो जेब में डाल लेते होंगे और माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती होगी या लेखक और उनके साथी खुद ही, स्कूल से बाहर आते समय उन्हें बकरी के मेमनों की तरह खा या ‘चर’ जाया करते होगें।

जब अगली श्रेणी में दाखिल होते तो एक ओर तो बहुत बड़े, सयाने होने के एहसास से उत्साहित भी होते, परन्तु दूसरी ओर नयी, पुरानी कापियों-किताबों से जाने कैसी बास आती कि उन्हीं मास्टरों के डर से काँपने लगते जो पिछली श्रेणी में पढ़ा चुके होते।

तब स्कूल में, शुरू साल में एक-डेढ़ महीना पढ़ाई हुआ करती, फिर डेढ़-दो महीने की छुटियाँ शुरू हो जाया करतीं। अब तक जो बात अच्छी तरह याद है वह छुटियों के पहले और आखरी दिनों का फर्क था। पहले दो तीन सप्ताह तो खूब खेल कूद हुआ करती। हर साल ही माँ के साथ ननिहाल चले जाते। वहाँ नानी खूब दूध-दहीं, मक्खन खिलाती, बहुत प्यार करती। छोटा सा पिछड़ा गाँव था परन्तु तालाब हमारी मंडी के तालाब जितना ही बड़ा था। दोपहर तक तो उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो जी में आता माँगकर खाने लगते। नानी हमारे बोलने के ढंग या कम खाने के कारण बहुत खुश होती। अपने पोतों को हमारी तरह बोलने और खाने-पीने को कहती।

श्रेणी – कक्षा
सयाने – समझदार
ननिहाल – नानी के घर
पिछड़ा – जो उन्नति न कर सका हो।

लेखक कहता है कि जब वे एक कक्षा से दूसरी कक्षा में शामिल होते तो एक ओर तो लगता की वे बहुत बड़े और समझदार हो गए हैं, परन्तु वहीं दूसरी ओर नयी-पुरानी कापियों-किताबों  से न जाने कैसी बास आती कि उन्हीं मास्टरों के डर से काँपने लगते जो पिछली कक्षा में पढ़ा चुके होते थे।

लेखक कहता है कि उसके समय में स्कूलों में, साल के शुरू में एक-डेढ़ महीना ही पढ़ाई हुआ करती थी, फिर डेढ़-दो महीने की छुटियाँ शुरू हो जाती थी। लेखक को जो बातें अब तक अच्छी तरह से याद है, वह छुटियों के पहले और आखरी दिनों का फर्क है। लेखक कहता है कि पहले के दो तीन सप्ताह तो खूब खेल कूद में बीतते थे। हर साल ही छुटियों में लेखक अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर चले जाता था। वहाँ नानी खूब दूध-दहीं, मक्खन खिलाती, बहुत ज्यादा प्यार करती थी। लेखक की नानी का जहाँ घर था, वह छोटा सा गाँव था जो विकास की दृष्टि से काफ़ी पीछे रह गया था। परन्तु वहाँ पर भी उतना ही बड़ा तालाब था जितना बड़ा लेखक की मंडी में था। दोपहर तक तो लेखक और उनके साथी उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो उनका जी करता वह माँगकर खाने लगते। लेखक की नानी लेखक के बोलने के ढंग या कम खाने के कारण बहुत खुश होती थी। अपने पोतों को लेखक की तरह बोलने और खाने-पीने को कहती।

जिस साल ननिहाल न जा पाते, उस साल भी अपने घर से थोड़ा बाहर तालाब पर चले जाते। कपड़े उतार पानी में कूद जाते और कुछ समय बाद, भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर, रेत के ऊपर लेटने लगते। गीले शरीर को गर्म रेत से खूब लथपथ के उसी तरह भागते, किसी ऊँची जगह से तालाब में छलाँग लगा देते। रेत को गंदले पानी से साफ़ कर फिर टीले की ओर भाग जाते। याद नहीं की ऐसा, पाँच-दस बार करते या पंद्रह-बीस बार। कई बार तालाब में कूदकर ऐसे हाथ-पाँव हिलाने लगते जैसे बहुत अच्छे तैराक हों। परन्तु एक-दो को छोड़, मेरे किसी साथी को तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँव हिलाते हुए गहरे पानी में चले जाते तो दूसरे उन्हें बाहर आने के लिए किसी भैंस के सींग या दुम पकड़कर बाहर आने की सलाह देते। उन्हें ढाँढ़स बँधाते। कूदते समय मुँह में गंदला पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँसते। कई बार ऐसा लगता कि साँस रुकने वाली है परन्तु हाय-हाय करते किसी न किसी तरह तालाब के किनारे पहुँच जाते।

गंदले – गंदा, मटमैला
दुम – पूँछ
सलाह – विचार-विमर्श,परामर्श
ढाँढ़स – धीरज दिलाना, हौसला देना

लेखक कहता है कि जिस साल वह नानी के घर नहीं जा पाता था, उस साल लेखक अपने घर से दूर जो तालाब था, वहाँ जाया करता था। लेखक और उसके साथी कपड़े उतार कर पानी में कूद जाया करते थे, थोड़े समय बाद पानी से निकलकर भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर रेत के ऊपर लोटने लगते थे। गीले शरीर को गर्म रेत से खूब लथपथ करके फिर उसी तरह भागते थे। किसी ऊँची जगह जाकर वहाँ से तालाब में छलाँग लगा देते थे। जैसे ही उनके शरीर से लिपटी रेत तालाब के उस गंदे पानी से साफ़ हो जाती, वे फिर से उसी टीले की ओर भागते। लेखक कहता है कि उसे यह याद नहीं है कि वे इस तरह दौड़ना, रेत में लोटना और फिर दौड़ कर तालाब में कूद जाने का सिलसिला पाँच-दस बार करते थे या पंद्रह-बीस बार। कई बार तालाब में कूदकर ऐसे हाथ-पाँव हिलाने लगते जैसे उन्हें बहुत अच्छे से तैरना आता हो। परन्तु एक-दो को छोड़, लेखक के किसी साथी को तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँव हिलाते हुए गहरे पानी में चले जाते तो दूसरे उन्हें बाहर आने के लिए सलाह देते कि ऐसा मानो जैसे किसी भैंस के सींग या पूँछ पकड़ रखी हो। उनका हौसला बढ़ाते। कूदते समय मुँह में गंदला पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँस कर उसे बाहर निकालने का प्रयास करते थे। कई बार ऐसा लगता कि साँस रुकने वाली है परन्तु हाय-हाय करके किसी न किसी तरह तालाब के किनारे तक पहुँच ही जाते थे।

फिर छुटियाँ बितने लगतीं तो दिन गिनने लगते। प्रत्येक दिन डर बढ़ता चला जाता। खेल-कूद और तालाब में नहाना भी भूलने लगता। मास्टरों ने जो छुट्टियों में करने के लिए काम दिया होता उसका हिसाब लगाने लगते। जैसे हिसाब के मास्टर जी दो सौ से काम सवाल कभी न बताते। मन में हिसाब लगाते कि यदि दस सवाल रोज़ निकाले तो बीस दिन में पुरे हो जाएंगे। जब ऐसा सोचना शुरू करते तो छुट्टियों का एक महीना बाकी हुआ करता। एक-एक दिन गिनते दस दिन खेल-कूद में और बीत जाते। स्कूल की पिटाई का डर और बढ़ने लगता। परन्तु डर भुलाने के लिए सोचते कि दस की क्या बात, सवाल तो पंद्रह भी रोज़ आसानी से निकाले जा सकते हैं। जब ऐसा हिसाब लगाने लगते तो छुट्टियाँ कम होते-होते जैसे भागने लगतीं दिन बहुत छोटे लगने लगते। ऐसा मालूम होता जैसे सूरज भाग कर दोपहरी में ही छिप जाता हो। जैसे-जैसे दिन ‘छोटे’ होने लगते स्कूल का भय बढ़ने लगता। हमारे कितने ही सहपाठी ऐसे भी होते जो छुट्टियों का काम करने के बजाय मास्टरों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझते। हम जो पिटाई से बहुत डरा करते, उन ‘बहादुरों’ की भाँति ही सोचने लगते। ऐसे समय हमारा सबसे बड़ा ‘नेता’ ओमा हुआ करता।

हिसाब के मास्टर जी – गणित के अध्यापक
दोपहरी – दिन में ही

लेखक कहता है कि जैसे-जैसे उनकी छुट्टियों के दिन ख़त्म होने लगते तो वे लोग दिन गिनने शुरू कर देते थे। हर दिन के ख़त्म होते-होते उनका डर भी बढ़ने लगता था। डर के कारण लेखक और उसके साथी खेल-कूद के साथ-साथ तालाब में नहाना भी भूल जाते।

अध्यापकों ने जो काम छुट्टियों में करने के लिए दिया होता था, उसको कैसे करना है – इस बारे में सोचने लगते। जैसे- गणित के अध्यापक हमेशा छुट्टियों में दो सौ से कम प्रश्न नहीं देते थे। मन में सोचने लगते कि अगर एक दिन में दस सवालों को भी करे तो भी उनका सारा काम ख़त्म हो जाएगा। जब लेखक और उसके साथी ऐसा सोचना शुरू करते तब तक छुट्टियों का सिर्फ एक ही महीना बचा होता। एक-एक दिन गिनते-गिनते खेलकूद में दस दिन और बीत जाते। 

काम न किया होने के कारण स्कूल में होने वाली पिटाई का डर अब और ज्यादा बढ़ने लगता। फिर वे सभी अपना डर भगाने के लिए सोचते कि दस क्या, पंद्रह सवाल भी आसानी से एक दिन में किए जा सकते हैं। जब ऐसा सोचने लगते तो ऐसा लगने लगता जैसे छुट्टियाँ कम होते-होते भाग रही हों। दिन बहुत छोटे लगने लगते थे। ऐसा लगता था जैसे सूरज भाग कर दिन में ही छिप जाता हो। जैसे-जैसे दिन ‘छोटे’ होने लगते अर्थात छुट्टियाँ ख़त्म होने लगती डर और ज्यादा बढ़ने लगता। लेखक बताता है कि उसके कितने ही सहपाठी ऐसे भी होते थे जो छुट्टियों का काम करने के बजाय अध्यापकों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझते। लेखक और उसके साथी जो पिटाई से बहुत डरा करते, उन ‘बहादुरों’ की भाँति ही सोचने लगते। ऐसे समय में लेखक और उसके साथी का सबसे बड़ा ‘नेता’ ओमा हुआ करता था।

हम सभी उसके बारे में सोचते ही हमारे में उन जैसा कौन था। कभी भी उस जैसा दूसरा लड़का नहीं ढूँढ़ पाते थे। उसकी बातें, गालियाँ, मार पिटाई का ढंग अलग था ही, उसकी शक्ल-सूरत भी सबसे अलग थी। हाँड़ी जितना बड़ा सिर, उसके ठिगने चार बालिश्त के शरीर पर ऐसा लगता जैसे बिल्ली के बच्चे के माथे पर तरबूज रखा हो। इतने बड़े सिर में नारियल-की-सी आँखों वाला बंदरिया के बच्चे जैसा चेहरा और भी अजीब लगता। लड़ाई वह हाथ-पाँव नहीं, सिर से किया करता। जब साँड़ की भाँति फुँकारता, सिर झुका कर किसी के पेट या छाती में मार देता तो उससे दुगुने-तिगुने शरीर वाले लड़के भी पीड़ा से चिल्लाने लगते। हमें डर लगता कि किसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके सिर की टक्कर का नाम हमने ‘रेल-बम्बा’ रखा हुआ था-रेल के (कोयले से चलने वाले) इंजन की भाँति बड़ा और भयंकर ही तो था।

हाँड़ी – मटका
ठिगने – छोटे कद का
बालिश्त – बित्ता

लेखक कहता है कि वह और उसके साथी ओमा के बारे में सोचते कि उसकी तरह उन सब के बीच और कौन था। लेखक और उसके साथी कभी उसकी तरह दूसरा लड़का नहीं ढूँढ पाए। ओमा की बातें, गालियाँ और उसकी मार-पिटाई का ढंग सभी से बहुत अलग था। वह देखने में भी सभी से बहुत अलग था। उसका मटके के जितना बड़ा सिर था, जो उसके चार बालिश्त (ढ़ाई फुट) के छोटे कद के शरीर पर ऐसा लगता था जैसे बिल्ली के बच्चे के माथे पर तरबूज रखा हो। बड़े सिर पर नारियल जैसी आँखों वाला उसका चेहरा बंदरिया के बच्चे जैसा और भी अजीब लगता था।

जब भी लड़ाई होती थी तो वह अपने हाथ-पाँव का प्रयोग नहीं करता था, वह अपने सिर से ही लड़ाई किया करता था। जब वह किसी साँड़ की तरह गरजता और अपने सिर को झुका कर किसी के पेट या छाती में मार देता तो उससे दुगुने-तिगुने शारीरिक बल वाले लड़के भी दर्द से चिल्लाने लगते थे। लेखक और उसके साथी डर जाते थे कि कहीं वह किसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके सिर की टक्कर का नाम लेखक और उसके साथियों ने ‘रेल-बम्बा’ रखा हुआ था क्योंकि उसके सिर की वह टक्कर रेल के कोयले से चलने वाले इंजन की तरह ही भयानक होती थी।

हमारा स्कूल बहुत छोटा था-केवल छोटे-छोटे नौ कमरे थे जो अंग्रेजी के अक्षर एच (H) की भाँति बने थे। दाईं ओर पहला कमरा हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा जी का था जिसके दरवाजे के आगे हमेशा चिक लटकी रहती। स्कूल की प्रेयर (प्रार्थना) के समय वह बाहर आते और सीधी कतारों में कद के अनुसार खड़े लड़कों को देख उनका गोरा चेहरा खिल उठता। सारे अध्यापक, लड़कों की तरह ही कतार बाँधकर उनके पीछे खड़े होते। केवल मास्टर प्रीतम चंद ‘पीटी’ लड़कों की कतारों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते थे कि कौन सा लड़का कतार में ठीक नहीं खड़ा। उनकी घुड़की तथा ठुट्टों के भय से हम सभी कतार के पहले और आखरी लड़के का ध्यान रखते, सीधे कतार में बने रहने का प्रयत्न करते। सीधी कतार के साथ-साथ हमें यह भी ध्यान रखना पड़ता था कि आगे पीछे खड़े लड़कों के बीच की दुरी भी एक सी हो। सभी लड़के उस ‘पीटी’ से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा, न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरी पिंडली खुजलाने लगता तो वह उसकी और बाघ की तरह झपट पड़ते और ‘खाल खींचने’ के मुहावरे को प्रत्यक्ष करके दिखा देते।

कतार – पंक्ति
घुड़की – धमकी भरी डाँट
ठुट्टों – लात-घुस्से
खाल उधेड़ना – कड़ा दंड देना, बहुत अधिक मारना-पीटना

लेखक कहता है कि वह जिस स्कूल में पढता था वह स्कूल बहुत छोटा था। उसमें केवल छोटे-छोटे नौ कमरे थे, जो अंग्रेजी के अक्षर एच (H) की तरह बने हुए थे। दाईं ओर का पहला कमरा हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा जी का था जिसके दरवाजे के आगे हमेशा चिटकनी लटकी रहती थी। स्कूल की प्रेयर (प्रार्थना) के समय वह बाहर आते थे और सीधी पंक्तियों में कद के अनुसार खड़े लड़कों को देखकर उनके गोरा चेहरे पर ख़ुशी साफ़ ही दिखाई देती थी। सारे अध्यापक, लड़कों की तरह ही कतार बाँधकर उनके पीछे खड़े हो जाते थे। केवल मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे, वे लड़कों की पंक्तियों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते रहते थे कि कौन सा लड़का पंक्ति में ठीक से नहीं खड़ा है। उनकी धमकी भरी डाँट तथा लात-घुस्से के डर से लेखक और लेखक के साथी पंक्ति के पहले और आखरी लड़के का ध्यान रखते, सीधी पंक्ति में बने रहने की पूरी कोशिश करते थे।

सीधी पंक्ति के साथ-साथ लेखक और लेखक के साथियों को यह भी ध्यान रखना पड़ता था कि आगे पीछे खड़े लड़कों के बीच की दुरी भी एक समान होनी चाहिए। सभी लड़के उस ‘पीटी’ से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा था और न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरे पाँव की पिंडली (घुटने और टखने के बीच का टाँग के पीछे माँस वाले भाग को) खुजलाने लगता तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और ‘खाल खींचने’ (कड़ा दंड देना, बहुत अधिक मारना-पीटना) के मुहावरे को सामने करके दिखा देते।
परन्तु हेडमास्टर शर्मा जी उसके बिलकुल उलट स्वभाव के थे। वह पाँचवीं और आठवीं श्रेणी को अंग्रेजी स्वयं पढ़ाया करते थे। हमारे में से किसी को भी याद न था कि पाँचवी श्रेणी में कभी भी उन्हें, किसी गलती के कारण किसी की ‘चमड़ी उधेड़ते’ देखा या सूना हो। (चमड़ी उधेड़ना हमारे लिए बिलकुल ऐसा शब्द था जैसे हमारे ‘सरकारी मिडिल स्कूल’ का नाम) अधिक से अधिक वह गुस्से में बहुत जल्दी-जल्दी आँखें झपकाते, अपने लम्बे हाथ की उलटी अँगुलियों से एक ‘चपत’ मार देते और मेरे जैसे सबसे कमजोर शरीर वाले भी सिर झुकाकर मुँह नीचा किए हँस देते। वह चप

त तो जैसे हमें भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसी मजेदार लगती जो तब पैसे की शायद दो आ जाया करती।
चपत – चाँटा

लेखक कहता है कि मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे वे बहुत ही सख्त अध्यापक थे। परन्तु हेडमास्टर शर्मा जी उनके बिलकुल उलट स्वभाव के थे। वह पाँचवीं और आठवीं कक्षा को अंग्रेजी स्वयं पढ़ाया करते थे। लेखक और लेखक के साथियों में से किसी को भी याद नहीं था कि पाँचवी कक्षा में कभी भी उन्होंने हेडमास्टर शर्मा जी को किसी गलती के कारण किसी को मारते या डाँटते देखा या सूना हो। (चमड़ी उधेड़ना लेखक और लेखक के साथियों के लिए बिलकुल ऐसा शब्द था जैसे उनके ‘सरकारी मिडिल स्कूल’ का नाम) अधिक से अधिक हेडमास्टर शर्मा जी गुस्से में बहुत जल्दी-जल्दी आँखें झपकाते थे और अपने लम्बे हाथ की उलटी अँगुलियों से एक चाँटा मार देते थे और लेखक के जैसे सबसे कमजोर शरीर वाले भी सिर झुकाकर मुँह नीचा किए हँस देते थे। वह चाँटा तो जैसे लेखक और लेखक के साथियों को भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसा मजेदार लगता था जो लेखक के बचपन के समय में एक पैसे की शायद दो आ जाती थी।
परन्तु तब भी स्कूल हमारे लिए ऐसी जगह न थी जहाँ ख़ुशी से भागे जाएँ। पहली कच्ची श्रेणी से लेकर चौथी श्रेणी तक, केवल पाँच-सात लड़कों को छोड़ हम सभी रोते चिल्लाते ही स्कूल जाया करते।
परन्तु कभी-कभी ऐसी सभी स्थितियों के रहते स्कूल अच्छा भी लगने लगता। जब स्काउटिंग का अभ्यास करवाते समय पीटी साहब नीली-पीली झंडियाँ हाथों में पकड़ा कर वन टू थ्री कहते, झंडियाँ ऊपर-निचे, दाएँ-बाएँ करवाते तो हवा में लहराती और फड़फड़ाती झंडियों के साथ खाकी वर्दियों तथा गले में दोरंगे रुमाल लटकाए अभ्यास किया करते। 
दोरंगे – दो रंग के

लेखक कहता है कि उसके बचपन में भी स्कूल सभी के लिए ऐसी जगह नहीं थी जहाँ ख़ुशी से भाग कर जाया जाए। पहली कच्ची कक्षा से लेकर चौथी कक्षा तक, केवल पाँच-सात लड़के ही थे जो ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल जाते होंगे बाकि सभी रोते चिल्लाते ही स्कूल जाया करते थे।
फिर भी लेखक कहता है कि कभी-कभी कुछ ऐसी स्थितियाँ भी होती थी जहाँ बच्चों को स्कूल अच्छा भी लगने लगता था। 

वह स्थितियाँ बनती थी जब स्कूल में स्काउटिंग का अभ्यास करवाते समय पीटी साहब सभी बच्चो के हाथों में नीली-पीली झंडियाँ पकड़ा कर वन टू थ्री कहते और बच्चे भी झंडियाँ ऊपर-निचे, दाएँ-बाएँ हिलाते जिससे झंडियाँ हवा में लहराती और फड़फड़ाती। झंडियों के साथ खाकी वर्दियों तथा गले में दो रंग के रुमाल लटकाए सभी बच्चे बहुत ख़ुशी से अभ्यास किया करते थे। 
हम कोई गलती न करते तो अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते कहते-शाबाश। वैल बिगिन अगेन-वन, टू, थ्री, थ्री, टू, वन! उनकी एक शाबाश ऐसे लगने लगती जैसे हमने किसी फ़ौज के सभी तमगे जीत लिए हों। कभी यही  शाबाश, सभी मास्टरों की ओर से, हमारी सभी कापियों पर साल भर की लिखी ‘गुड्डों’ (गुड का बहुवचन) से अधिक मूल्यवान लगने लगती। कभी ऐसा भी लगता कि कई साल की सख्त मेहनत से प्राप्त की पढ़ाई से भी पीटी साहब के डिसीप्लिन में रह कर प्राप्त की ‘गुडविल’ बहुत बड़ी थी। परन्तु यह भी एहसास रहता कि जैसे गुरूद्वारे का भाई जी कथा करते समय बताया करता कि सतिगुर के भय से ही प्रेम जागता है, ऐसे यह ही पीटी साहब के प्रति हमारी प्रेम की भावना जग जाती। (यह ऐसा भी है कि आपको रोज फटकारने वाला कोई ‘अपना’ यदि साल भर के बाद एक बार ‘शाबाश’ कह दें तो यहचमत्कार-सा लगने लगता है-हमारी दशा भी कुछ ऐसी हुआ करती।)

 

तमगा – पदक, मैडल
डिसीप्लिन – अनुशासन
गुडविल – साख, प्रख्याति
सतिगुर – सतगुरु
फटकारना – डाँटना

लेखक कहता है कि यदि स्काउटिंग करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। और वैल बिगिन अगेन अर्थात दुबारा करने के लिए कहते हुए-वन, टू, थ्री, थ्री, टू, वन! करते जाते और बच्चे भी ख़ुशी-ख़ुशी उनका कहना मानते।

लेखक कहता है कि उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों। दूसरे मास्टरों की ओर से जब कभी लेखक और उसके साथियों को कापियों पर साल भर की मेहनत के लिए ‘गुड्डों’ (गुड का बहुवचन) दिया जाता, उससे कहीं अधिक पीटी साहब का शाबाश मूल्यवान लगता था। कभी-कभी लेखक और उसके साथियों को ऐसा भी लगता था कि कई साल की सख्त मेहनत से जो पढ़ाई उन्होंने प्राप्त की थी, पीटी साहब के अनुशासन में रह कर प्राप्त की ‘गुडविल’ का रॉब या घमंड उससे बहुत बड़ा था। परन्तु लेखक और उसके साथियों को यह भी एहसास रहता था कि जैसे गुरूद्वारे का भाई जी कथा करते समय बताया करता है कि सतगुरु के भय से ही प्रेम जागता है, इसी तरह लेखक और उसके साथियों की पीटी साहब के प्रति प्रेम की भावना जग जाती थी। लेखक कहता है कि यह ऐसा भी है कि आपको रोज डाँटने वाला कोई ‘अपना’ यदि साल भर के बाद एक बार ‘शाबाश’ कह दें तो यह किसी चमत्कार-से कम नहीं लगता है-लेखक और उसके साथियों की दशा भी कुछ ऐसी हुआ करती थी।

हर वर्ष अगली श्रेणी में प्रवेश करते समय मुझे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं। हमारे हेडमास्टर शर्मा जी एक लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। वे धनाढ्य लोग थे। उनका लड़का मुझसे एक-दो साल बड़ा होने के कारण मेरे से एक श्रेणी आगे रहा। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता तो शर्मा जी उसकी एक साल पुरानी पुस्तकें ले आते। हमारे घर में किसी को भी पढ़ाई में दिलचस्पी न थी। यदि नयी किताबें लानी पड़तीं (जो तब एक-दो रूपये में आ जाया करतीं)  तो शायद इसी बहाने पढ़ाई तीसरी-चौथी श्रेणी में ही छूट जाती। कोई सात साल स्कूल में रहा तो एक कारण पुरानी किताबें मिल जाना भी था। कापियों, पैंसिलों, होल्डर या स्याही-दवात में भी मुश्किल से एक-दो रूपये साल भर में खर्च हुआ करते। परन्तु उस जमाने में एक रूपया भी बहुत बड़ी ‘रकम’ हुआ करती थी। एक रूपये में एक सेर घी आया करता और दो रूपये की एक मन (चालीस सेर) गंदम। इसी कारण, खाते-पीते घरों के लड़के ही स्कूल जाया करते। हमारे दो परिवारों में मैं अकेला लड़का था जो स्कूल जाने लगा था।
धनाढ्य – अधिक धन वाले
दिलचस्पी – रूचि
रकम – सम्पति, दौलत

लेखक कहता है कि हर साल जब वह अगली कक्षा में प्रवेश करता तो उसे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं थी। उसके स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी एक लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। वे बहुत धनी लोग थे। उनका लड़का लेखक से एक-दो साल बड़ा होने के कारण लेखक से एक कक्षा आगे पढ़ता था। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता था तो शर्मा जी उस लड़के की एक साल पुरानी पुस्तकें लेखक के लिए ले आते थे। लेखक के घर में किसी को भी पढ़ाई में कोई रूचि नहीं थी। यदि नयी किताबें लानी पड़तीं (जो लेखक के समय में केवल एक-दो रूपये में आ जाया करतीं थी) तो शायद इसी बहाने लेखक की पढ़ाई तीसरी-चौथी कक्षा में ही छूट जाती। लेखक लगभग सात साल स्कूल में रहा तो उसका एक कारण लेखक को पुरानी किताबें मिल जाना भी था। कापियों, पैंसिलों, होल्डर या स्याही-दवात में भी मुश्किल से साल भर में एक-दो रूपये ही खर्च हुआ करते थे। 

 

परन्तु उस जमाने में एक रूपया भी बहुत बड़ी सम्पति या दौलत हुआ करती थी। एक रूपये में एक सेर घी आया करता था और दो रूपये में तो एक मन यानि चालीस सेर गंदम आ जाते थे। यही कारण था की उस समय केवल खाते-पीते घरों के लड़के ही स्कूल जाया करते थे। लेखक के दोनों परिवारों में लेखक ही अकेला लड़का था जो स्कूल जाने लगा था।

परन्तु  किसी भी नयी श्रेणी में जाने का ऐसा चाव कभी भी महसूस नहीं हुआ जिसका ज़िक्र कुछ लड़के किया करते। अज़ीब बात थी कि मुझे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती कि मन बहुत उदास होने लगता था। इसका ठीक-ठीक कारण तो कभी समझ में नहीं आया परन्तु जितनी भी मनोविज्ञान की जानकारी है, उस अरुचि का कारण यही समझ में आया कि आगे की श्रेणी की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का भय ही कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी तो नए न होते थे परन्तु दो-तीन हर साल ही वह होते जोकि छोटी श्रेणी में नहीं पढ़ाते थे। कुछ ऐसी भी भावना थी कि अधिक अध्यापक एक साल में ऐसी अपेक्षा करने लगते कि जैसे हम ‘हरफनमौला’ हो गए हों। यदि उनकी आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ तो जैसे ‘चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते’ इन्ही कुछ कारणों से केवल किताबों-कापियों की गंध से ही नहीं, बाहर के बड़े गेट से दस-पंद्रह गज दूर स्कूल के कमरों तक रास्ते के दोनों ओर जो अलिआर के झाड़ उगे थे उनकी गंध भी मन उदास कर दिया करती।

चाव – शौक, इच्छा
ज़िक्र – चर्चा
हरफनमौला – सर्वगुण सम्पन्न, हर क्षेत्र में आगे रहे वाला

लेखक कहता है कि उसे कभी भी किसी भी नयी कक्षा में जाने की ऐसी कोई इच्छा कभी भी महसूस नहीं हुई जिसकी चर्चा कुछ लड़के किया करते थे। अज़ीब बात लेखक को यह लगाती थी कि उसे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती थी कि उसका मन बहुत उदास होने लगता था। इसका ठीक-ठीक कारण तो लेखक को कभी समझ में नहीं आया परन्तु लेखक को जितनी भी मनोविज्ञान की जानकारी है, उस अरुचि का कारण उसे यही समझ में आया कि आगे की कक्षा की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का डर ही लेखक के कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी अध्यापक तो नए नहीं होते थे परन्तु दो-तीन हर साल ही वह होते जोकि छोटी कक्षा में नहीं पढ़ाते थे। लेखक के मन में कुछ ऐसी भी भावना थी कि अधिक अध्यापक एक साल में ऐसी उम्मीद करने लगते थे कि जैसे लेखक और उसके साथी सर्वगुण

सम्पन्न या हर क्षेत्र में आगे रहने वाले हो गए हों। यदि लेखक और उसके साथी उन अध्यापकों की आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ अध्यापक तो हमेशा ही विद्यार्थियों की ‘चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते’ थे। इन्ही कुछ कारणों से केवल किताबों-कापियों की गंध से ही नहीं बल्कि बाहर के बड़े गेट से दस-पंद्रह गज दूर स्कूल के कमरों तक रास्ते के दोनों ओर जो बरामदे में झाड़ उगे थे, जिसकी गंध लेखक को बहुत अच्छी लगती थी परन्तु अब उनकी गंध भी लेखक का मन उदास कर दिया करती थी।
परन्तु स्कूल एक-दो कारणों से अच्छा भी लगने लगा था। मास्टर प्रीतमचंद जब हम स्काउटों को परेड करवाते तो लेफ्ट-राइट की आवाज़ या मुँह में ली ह्विसल से मार्च कराया करते। फिर राइट टर्न या लेफ्ट टार्न या अबाऊट टर्न कहने पर छोटे-छोटे बूटों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर बूटों की ठक-ठक करते अकड़कर चलते तो लगता जैसे हम विद्यार्थी नहीं, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों-फौज़ी जवान। 

ह्विसल – सीटी
बूट – जूते
अकड़ – घमण्ड

लेखक कहता है कि बचपन में स्कूल जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था परन्तु एक-दो कारणों के कारण कभी-कभी स्कूल जाना अच्छा भी लगने लगता था। मास्टर प्रीतमसिंह जो लेखक के स्कूल के पीटी थे, वे लेखक और उसके साथियों को परेड करवाते और मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे।

फिर जब वे राइट टर्न या लेफ्ट टार्न या अबाऊट टर्न कहते तो सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है, अर्थात लेखक कहना चाहता है कि सभी विद्यार्थी अपने-आप को फौजी समझते थे।
दूसरे विश्व युद्ध का समय था, परन्तु हमारी नाभा रियासत का राजा अंग्रेजों ने 1923 में गिरफ़्तार कर लिया था और तमिलनाडु में कोडाएकेनाल में ही, जंग शुरू होने से  पहले उसका देहांत हो गया था। उस राजा का बेटा, कहते थे अभी विलायत में पढ़ रहा था। इसलिए हमारे देसी रियासत में भी अंग्रेज की ही चलती थी फिर भी राजा के न रहते, अंग्रेज हमारी रियासत के गाँवों से ‘जबरन’ भरती नहीं कर पाया था। लोगो को फ़ौज में भर्ती करने के लिए जब कुछ अफसर आते तो उनके साथ कुछ नौटंकी वाले भी हुआ करते। वे रात को खुले मैदान में शामियाने लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी के दृश्य दिखाकर आकर्षित किया करते। उनका एक गाना अभी भी याद है। कुछ मसखरे अज़ीब सी वर्दियाँ पहने और अच्छे, बड़े फ़ौजी बूट पहने गाया करते-
भरती हो जा रे रंगरूट
भरती हो जा रे……
अठे मिले सैं टूटे लीतर
उठै मिलैंदे बूट,
भरती हो जा रे,
हो जा रे रंगरूट।
अठे पहन सै फटे पुराणे
उठै मिलेंगे सूट
भरती हो जा रे,
हो जा रे रंगरूट।
इन्हीं बातों से आकर्षित हो कुछ नौजवान भरती के लिए तैयार हो जाया करते।
कभी-कभी हमें भी महसूस होता कि हम भी फौजी जवानों से कम नहीं। धोबी की धुली वर्दी और पालिश किए बूट और जुराबों को पहने जब हम स्काउटिंग की परेड करते तो लगता हम फौजी ही हैं।
विलायत – प्रदेश
शामियाना – तम्बू
मसखरे – विदूषक या हँसी-मजाक करने वाले व्यक्ति
रंगरूट – सेना या पुलिस आदि में नया भर्ती होने वाला सिपाही
अठे – यहाँ
लीतर – फटे-पुराने खस्ताहाल जूते
उठै – वहाँ

लेखक कहता है कि जब लेखक स्कूल में था तब दूसरे विश्व युद्ध का समय था, परन्तु नाभा रियासत के राजा को अंग्रेजों ने 1923 में गिरफ़्तार कर लिया था और तमिलनाडु में कोडाएकेनाल में ही, जंग शुरू होने से पहले उसका देहांत हो गया था। जब राजा का देहांत हुआ, उस समय सभी कहते थे कि उस राजा का बेटा उस समय प्रदेश में पढ़ रहा था। इसलिए लेखक की देसी रियासत को भी अंग्रेजी सरकार ही चलाती थी फिर भी राजा के न रहते, अंग्रेजी सरकार लेखक की रियासत के गाँवों से ज़ोर-ज़बरदस्ती किसी को भी फ़ौज में भरती नहीं कर पायी थी। लोगो को फ़ौज में भर्ती करने के लिए जब कुछ अफसर गाँव में आते तो उनके साथ कुछ नौटंकी वाले भी आया करते थे। वे रात को खुले मैदान में तम्बू लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी के दृश्य दिखाकर फ़ौज में भर्ती होने के लिए आकर्षित किया करते थे। उनका एक गाना अभी भी लेखक को याद है। कुछ हँसी-मजाक करने वाले व्यक्ति अज़ीब सी वर्दियाँ पहनकर और अच्छे, बड़े फ़ौजी बूट पहनकर गाना गाया करते थे-

वे सेना या पुलिस आदि में नए लोगों को भरती करवाने के लिए कहते थे कि यहाँ पर उन्हें सिर्फ फटे-पुराने खस्ताहाल जूते ही मिलेंगे, वहाँ बहुत बढ़िया जूते मिलेंगे। ज्यादा सोच मत भरती हो जाओ।
यहाँ पर फाटे-पुराने कपड़े ही पहनने को मिलेंगे और वहाँ तो सूट मिलेगा इसलिए ज्यादा मत सोच जल्दी से फ़ौज में भर्ती हो जाओ।
इन्हीं सारी बातों की वजह से कुछ नौजवान फ़ौज में भरती होने के लिए तैयार भी हो जाया करते थे।

लेखक कहता है कि कभी-कभी उन्हें भी लगता कि वे सब भी फौजी जवानों से कम नहीं हैं। जब वे धोबी द्वारा धोई गई वर्दी और पालिश किए चमकते जूते और जुराबों को पहनकर स्काउटिंग की परेड करते तो लगता कि वे भी फौजी ही हैं। 

मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में कभी भी हमने मुस्कुराते या हँसते न देखा था। उनका ठिगना कद, दुबला-पतला परन्तु गठीला शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले बूट-सभी कुछ ही भयभीत करने वाला हुआ करता। उनके बूटों की ऊँची एड़ियों के निचे भी खुरियाँ लगी रहतीं, जैसे ताँगे के घोड़े के पैरों में लगी रहती है। अगले हिस्से में, पंजों के निचे मोठे सिरों वाले कील ठुके होते। यदि वह सख्त जगह पर भी चलते तो खुरियों और किलों के निशान वहाँ भी दिखाई देते। हम ध्यान से देखते, इतने बड़े और भारी-भारी बूट पहनने के बावजूद उनके टखनों में कहीं मोच तक नहीं आती थी। (उनको देख कर हम यदि घरवालों से बूटों की माँग करते तो माँ-बाप यही कहते कि टखने टेढ़े हो जाएँगे, सारी उमर सीधे न चलने पाओगे।)
ठिगना – छोटा
गठीला – पुष्ट

लेखक कहता हैं कि उन्होंने कभी भी मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में मुस्कुराते या हँसते नहीं देखा था। उनका छोटा कद, दुबला-पतला परन्तु पुष्ट शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यानि चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े बच्चों की  भयभीत करने वाली होती थी। उनके जूतों की ऊँचीएड़ियों के निचे भी उसी तरह की खुरियाँ लगी रहतीं थी, जैसे ताँगे के घोड़े के पैरों में लगी रहती है। अगले हिस्से में, पंजों के निचे मोठे सिरों वाले कील ठुके होते थे। यदि मास्टर प्रीतमचंद सख्त जगह पर भी चलते तो खुरियों और किलों के निशान वहाँ भी दिखाई देते थे। लेखक और उसके साथी उन निशानों को ध्यान से देखते और सोचते कि इतने बड़े और भारी-भारी जूते पहनने के बावजूद भी मास्टर प्रीतमचंद के टखनों (पिंडली एवं एड़ी के बीच की दोनों ओर उभरी हड्डी) में मोच कैसे नहीं आती थी। ये सब देख कर लेखक और उसके साथी यदि घरवालों से वैसे ही जूतों की माँग करते तो माँ-बाप यही कहते कि टखने टेढ़े हो जाएँगे और फिर सारी उमर सीधे नहीं चल पाओगे।

मास्टर प्रीतमचंद से हमारा डरना तो स्वाभाविक था, परन्तु हम उनसे नफ़रत भी करते थे। कारण तो उसका मारपीट था। हम सभी को (जो मेरी उमर के हैं) वह दिन नहीं भूल पाया जिस दिन वह हमें चौथी श्रेणी में फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। हमें उर्दू का तो तीसरी श्रेणी तक अच्छा अभ्यास हो गया था परन्तु फ़ारसी तो अंग्रेजी से भी मुश्किल थी। अभी हमें पढ़ते एक सप्ताह भी न हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने हमें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आदेश दिया कि कल इसी घंटी में ज़बानी सुनेंगे। हम सभी घर लौटकर, रात देर तक उसी शब्दरूप को बार-बार याद करते रहे परन्तु केवल दो-तीन ही लड़के थे जिन्हें आधी या कुछ अधिक शब्दरूप याद हो पाया। दूसरे दिन बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। तभी मास्टर जी गुर्राए-सभी कान पकड़ो।
हमने झुककर टाँगों के पीछे से बाँहें निकालकर कान पकड़े तो वह गुस्से से चीखे-पीठ ऊँची करो।
स्वाभाविक – प्राकृतिक
आदेश – आज्ञा
ज़बानी – केवल जुबान के द्वारा
गुर्राए – गुस्से में चिल्लाना

लेखक कहता हैं कि मास्टर प्रीतमचंद से सभी बच्चों का डरना तो प्राकृतिक था, परन्तु सभी बच्चे उनसे नफ़रत भी करते थे। इसका कारण लेखक बताता है कि वे बच्चों को मारते-पीटते थे जिस कारण बच्चे उनसे नफरत करते थे। लेखक अपनी पूरी ज़िन्दगी में उस दिन को कभी नहीं भूल पाया जिस दिन मास्टर प्रीतमचंद लेखक की चौथी कक्षा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। लेखक कहता है कि उसकी कक्षा को उर्दू का तो तीसरी कक्षा तक अच्छा अभ्यास हो गया था परन्तु उन सभी को फ़ारसी तो अंग्रेजी से भी मुश्किल लगने लगी थी। अभी मास्टर प्रीतमचंद को लेखक की कक्षा को पढ़ते हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने उन्हें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आज्ञा दी कि कल इसी घंटी में केवल जुबान के द्वारा ही सुनेंगे। सभी विद्यार्थी घर लौटकर, रात देर तक उसी शब्दरूप को बार-बार याद करते रहे परन्तु केवल दो-तीन ही लड़के थे, जिन्हें आधी या कुछ अधिक शब्दरूप याद हो पाया था। दूसरे दिन मास्टर प्रीतमचंद ने बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मास्टर जी गुस्से में चिल्लाए कि सभी विद्यार्थी अपने-अपने कान पकड़ो। सभी ने झुककर टाँगों के पीछे से बाँहें निकालकर कान पकड़े तो वह फिर से गुस्से से चीखे कि सभी अपनी पीठ ऊँची रखें।

पीठ ऊँची करके कान पकड़ने से, तीन-चार मिनट में ही टाँगों में जलन होने लगती थी। मेरे जैसे कमज़ोर तो टाँगों के थकने से कान पकडे हुए ही गिर पड़ते। जब तक मेरी और हरबंस की बारी आई तब तक हेडमास्टर शर्मा जी अपने दफ़्तर में आ चुके थे। जब हमें सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी, स्कूल की पूरब की ओर बने सरकारी हस्पताल में डाक्टर कपलाश से मिलने गए थे। वह दफ़्तर के सामने की ओर चले आए। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि वह पीटी प्रीतमचंद की उस बर्बरता को सहन नहीं कर पाए। वह उत्तेजित हो गए थे।
दफ़्तर – कार्यालय, ऑफिस
बर्बरता – असभ्यता एवं जंगलीपन

जब मास्टर जी ने सभी विद्यार्थियों को अपने-अपने कान पकड़ने और अपनी पीठ ऊँची रखने के लिए कहा तो लेखक कहता है कि पीठ ऊँची करके कान पकड़ने से, तीन-चार मिनट में ही टाँगों में जलन होने लगती थी। लेखक के जैसे कमज़ोर बच्चे तो टाँगों के थकने से कान पकडे हुए ही गिर पड़ते थे। लेखक कहता है कि जब तक उसकी और हरबंस की बारी आई तब तक हेडमास्टर शर्मा जी अपने कार्यालय में आ चुके थे। जब लेखक की कक्षा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी स्कूल की पूरब की ओर बने सरकारी हस्पताल में डाक्टर कपलाश से मिलने गए थे। जब वे लौटे तो वह कार्यालय के सामने की ओर चले आए। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि उन्होंने पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को देखा था।  उन्होंने  सहन नहीं किया और वह भड़क गए थे।

ह्वाट आर यू डूईंग, इज इट दा वे टू पनिश दा स्टूडेंट्स ऑफ फोर्थ क्लास? स्टाप इट ऐट वन्स।
हमें तब अंग्रेजी नहीं आती थी, क्योंकि उस समय पाँचवी श्रेणी से अंग्रेजी पढ़ानी शुरू की जाती थी। परन्तु हमारे स्कूल के सातवीं-आठवीं श्रेणी के लड़कों ने बताया था कि शर्मा जी ने कहा था-क्या करते हैं? क्या चौथी श्रेणी को सजा देने का यह ढंग है? इसे फ़ौरन बंद करो।
शर्मा जी गुस्से से काँपते बरामदे से ही अपने दफ्तर में चले गए थे।
फिर जब प्रीतमचंद कई दिन स्कूल नहीं आए तो यह बात सभी मास्टरों की जुबान पर थी कि हेडमास्टर शर्मा जी ने उन्हें मुअत्तल करके अपनी ओर से आदेश लिखकर मंजूरी के लिए हमारी रियासत की राजधानी, नाभा भेज दिया है। वहाँ हरजीलाल नाम के ‘महकमाए-तालीम’के डायरेक्टर थे जिनसे ऐसे आदेश की मंजूरी आवश्यक थी।
मुअत्तल – निलंबित या निकाल देना
मंजूरी – स्वीकृति
महकमाए-तालीम – शिक्षा विभाग

लेखक कहता है कि पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को देख कर हेडमास्टरर शर्मा जी भड़क कर कहने लगे कि ह्वाट आर यू डूईंग, इज इट दा वे टू पनिश दा स्टूडेंट्स ऑफ फोर्थ क्लास? स्टाप इट ऐट वन्स। लेखक कहता है कि उस समय उसकी कक्षा को समझ नहीं आया कि हेडमास्टर शर्मा जी क्या कह रहे हैं क्योंकि तब उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी, क्योंकि उस समय पाँचवी श्रेणी से अंग्रेजी पढ़ानी शुरू की जाती थी। परन्तु लेखक के स्कूल के सातवीं-आठवीं श्रेणी के लड़कों ने बताया था कि शर्मा जी ने कहा था-क्या करते हैं? क्या चौथी श्रेणी को सजा देने का यह ढंग है? इसे फ़ौरन बंद करो। इतना कह कर शर्मा जी गुस्से से काँपते हुए बरामदे से ही अपने कार्यालय में चले गए थे।
फिर जब इस घटना के बाद प्रीतमचंद कई दिन स्कूल नहीं आए तो यह बात सभी मास्टरों की जुबान पर थी कि हेडमास्टर शर्मा जी ने उन्हें निलंबित करके अपनी ओर से आदेश लिखकर स्वीकृति के लिए लेखक की रियासत की राजधानी, नाभा भेज दिया है। वहाँ हरजीलाल नाम के शिक्षा विभाग के डायरेक्टर थे जिनसे ऐसे आदेश की स्वीकृति आवश्यक थी। ऐसी स्वीकृति मिल जाने के बाद पीटी प्रीतमचंद को हमेशा के लिए स्कूल से निकाल दिया जाने था।

उस दिन के बाद यह पता होते हुए भी कि पीटी प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर ‘बहाल’ नहीं करेंगें तब तक वह स्कूल में कदम नहीं रख सकते, जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो हमारी छाती धक्-धक् करती फटने को आती। परन्तु जब तक शर्मा जी स्वयं या मास्टर नौहरिया रामजी कमरे में फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, हमारे चेहरे मुरझाए रहते।
बहाल – पूर्व स्थिति में प्राप्त

लेखक कहता है कि जिस दिन से हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी प्रीतमचंद को निलंबित किया था उस दिन के बाद यह पता होते हुए भी कि पीटी प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर ‘बहाल’ नहीं करेंगें तब तक वह स्कूल में कदम नहीं रख सकते, फिर भी जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो लेखक की और उसकी कक्षा के सभी बच्चों की छाती धक्-धक् करने लगती और लगता जैसे छाती फटने वाली हो। परन्तु जब तक शर्मा जी स्वयं या मास्टर नौहरिया रामजी कमरे में फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, तब तक तो सभी बच्चों के चेहरे मुरझाए ही रहते थे।
फिर कई सप्ताह तक पीटी मास्टर स्कूल नहीं आए। पता चला कि बाज़ार में एक दूकान के ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खिड़कियों वाला चौबारा किराए पर ले रखा था, वहीँ आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के विद्यार्थी हमें बताया करते कि उन्हें मुअत्तल होने की रति भर भी चिंता नहीं थी। पहले की ही तरह आराम से पिंजरे में रखे दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर उन्हें खिलाते उनसे बातें करते रहते हैं। उनके वे तोते हमने भी कई बार देखें थे। (हम उन लड़कों के साथ उनके चौबारे में गए थे जो लड़के पीटी साहब के आदेश पर उनके घर में काम करने जाया करते) परन्तु हमारे लिए यह चमत्कार ही था कि जो प्रीतमचंद बिल्ला मार-मारकर हमारी चमड़ी तक उधेड़ देते वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें कैसे कर लेते थे? क्या तोतों को उनकी दहकती, भूरी आँखों से भय नहीं लगता था।
हमारी समझ में ऐसी बातें तब नहीं आ पाती थीं, बस एक तरह इन्हें अलौकिक ही मानते थे।
चौबारा – वह कमरा जिसमें चारों और से खिड़कियाँ और दरवाजें हों
रति भर – थोड़ी सी भी
बिल्ला – पट्टी या डंडा
अलौकिक – अद्भुत या अपूर्व

लेखक कहता है कि कई सप्ताह तक पीटी मास्टर स्कूल नहीं आए। लेखक और उसके साथियों को पता चला कि बाज़ार में एक दूकान के ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खिड़कियों वाला चौबारा (वह कमरा जिसमें चारों और से खिड़कियाँ और दरवाजें हों) किराए पर ले रखा था, पीटी मास्टर वहीं आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के विद्यार्थी लेखक और उसके साथियों को बताया करते थे कि उन्हें निष्कासित होने की थोड़ी सी भी चिंता नहीं थी। जिस तरह वह पहले आराम से पिंजरे में रखे दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर खिलाते थे, वे आज भी उसी तरह आराम से पिंजरे में रखे उन दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर खिलाते और उनसे बातें करते रहते हैं। उनके वे तोते लेखक और उसके साथियों ने भी कई बार देखें थे जब लेखक और उसके साथी उन लड़कों के साथ पीटी मास्टर  के चौबारे में गए थे जो लड़के पीटी साहब के आदेश पर उनके घर में काम करने जाया करते थे ।परन्तु लेखक और उसके साथियों के लिए यह चमत्कार ही था कि जो प्रीतमचंद पट्टी या डंडे से मार-मारकर विद्यार्थियों की चमड़ी तक उधेड़ देते, वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें कैसे कर लेते थे? लेखक स्वयं में सोच रहा था कि क्या तोतों को उनकी आग की तरह जलती, भूरी आँखों से डर नहीं लगता होगा? लेखक और उसके साथियों की समझ में ऐसी बातें तब नहीं आ पाती थीं, क्योंकि तब वे बहुत छोटे हुआ करते थे। वे तो बस पीटी मास्टर के इस रूप को एक तरह से अद्भुत ही मानते थे।

Sapnon Ke Se Din Question Answers – प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1 – कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती-पाठ के किस अंश से यह सिद्ध होता है?

उत्तर – कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती। यह बात लेखक के बचपन की एक घटना से सिद्ध होता है -लेखक के बचपन के ज्यादातर साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब लेखक छोटा था तो उनकी बातों को बहुत कम ही समझ पाता था और उनके कुछ शब्दों को सुन कर तो लेखक को हँसी आ जाती थी। परन्तु जब सभी खेलना शुरू करते तो सभी एक-दूसरे की बातों को बहुत अच्छे से समझ लेते थे। उनका व्यवहार एक दूसरे के लिए एक जैसा ही रहता था।

 

प्रश्न 2 – पीटी साहब की ‘शाबाश’ फ़ौज के तमगों-सी क्यों लगती थी? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे, वे लड़कों की पंक्तियों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते रहते थे कि कौन सा लड़का पंक्ति में ठीक से नहीं खड़ा है। सभी लड़के उस ‘पीटी’ से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा था और न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरे पाँव की पिंडली खुजलाने लगता, तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और ‘खाल खींचने’ (कड़ा दंड देना, बहुत अधिक मारना-पीटना) के मुहावरे को सामने करके दिखा देते। यही कारण था कि जब स्कूल में स्काउटिंग का अभ्यास करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता, तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों।

 

प्रश्न 3 – नयी श्रेणी में जाने और नयी कापियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन क्यों उदास हो उठता था?

उत्तर – हर साल जब लेखक अगली कक्षा में प्रवेश करता तो उसे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं थी। उसके स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी एक बहुत धनी लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता था तो शर्मा जी उस लड़के की एक साल पुरानी पुस्तकें लेखक के लिए ले आते थे। उसे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती थी कि उसका मन बहुत उदास होने लगता था। आगे की कक्षा की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का डर और अध्यापक की ये उम्मीद करना कि जैसे बड़ी कक्षा के साथ-साथ लेखक सर्वगुण सम्पन्न या हर क्षेत्र में आगे रहे वाला हो गया हो। यदि लेखक और उसके साथी उन अध्यापकों की आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ अध्यापक तो हमेशा ही विद्यार्थियों की ‘चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते’ थे।

प्रश्न 4 – स्काउट परेड करते समय लेखक अपने को महत्वपूर्ण ‘आदमी’ फ़ौजी जवान क्यों समझने लगता है?

उत्तर – जब लेखक धोबी द्वारा धोई गई वर्दी और पालिश किए चमकते जूते और जुराबों को पहनकर स्काउटिंग की परेड करते तो लगता कि वे भी फौजी ही हैं। मास्टर प्रीतमसिंह जो लेखक के स्कूल के पीटी थे, वे लेखक और उसके साथियों को परेड करवाते और मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे। फिर जब वे राइट टर्न या लेफ्ट टार्न या अबाऊट टर्न कहते तो सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है, अर्थात लेखकहना चाहता है कि सभी विद्यार्थी अपने-आप को फौजी समझते थे।

प्रश्न 5 – हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को क्यों मुअतल कर दिया?

उत्तर – मास्टर प्रीतमचंद लेखक की चौथी कक्षा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। अभी मास्टर प्रीतमचंद को लेखक की कक्षा को पढ़ते हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने उन्हें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आज्ञा दी कि कल इसी घंटी में केवल जुबान के द्वारा ही सुनेंगे। दूसरे दिन मास्टर प्रीतमचंद ने बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मास्टर जी ने गुस्से में चिल्लाकर सभी विद्यार्थियों को कान पकड़कर पीठ ऊँची रखने को कहा। जब लेखक की कक्षा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी स्कूल में नहीं थे। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि उन्होंने पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को सहन नहीं किया और वह भड़क गए थे। यही कारण था कि हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को  मुअतल कर दिया।

 

प्रश्न 6 – लेखक के अनुसार उन्हें स्कूल से भागे जाने की जगह न लगने पर भी कब और क्यों उन्हें स्कूल जाना अच्छा लगने लगा?

उत्तर – बचपन में लेखक को स्कूल जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था परन्तु जब मास्टर प्रीतमसिंह मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे और सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है । स्काउटिंग करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों। यह शाबाशी लेखक को उसे दूसरे अध्यापकों से मिलने वाले ‘गुड्डों’ से भी ज्यादा अच्छा लगता था। यही कारण था कि बाद में लेखक को स्कूल जाना अच्छा लगने लगा।

प्रश्न 7 – लेखक अपने छात्र जीवन में स्कूल से छुटियों में मिले काम को पूरा करने के लिए क्या-क्या योजनाएँ बनाया करता था और उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में किसकी भाँति ‘बहादुर’ बनने की कल्पना किया करता था?

उत्तर – जैसे-जैसे लेखक की छुट्टियों के दिन ख़त्म होने लगते तो वह दिन गिनने शुरू कर देता था। हर दिन के ख़त्म होते-होते उसका डर भी बढ़ने लगता था।  अध्यापकों ने जो काम छुट्टियों में करने के लिए दिया होता था, उसको कैसे करना है और एक दिन में कितना काम करना है यह सोचना शुरू कर देता। जब लेखक ऐसा सोचना शुरू करता तब तक छुट्टियों का सिर्फ एक ही महीना बचा होता। एक-एक दिन गिनते-गिनते खेलकूद में दस दिन और बीत जाते। फिर वह अपना डर भगाने के लिए सोचता कि दस क्या, पंद्रह सवाल भी आसानी से एक दिन में किए जा सकते हैं। जब ऐसा सोचने लगता तो ऐसा लगने लगता जैसे छुट्टियाँ कम होते-होते भाग रही हों। दिन बहुत छोटे लगने लगते थे।  लेखक ओमा की तरह जो ठिगने और बलिष्ट कद का उदंड लड़का था उसी की तरह बनने की कोशिश करता क्योंकि वह छुट्टियों का काम करने के बजाय अध्यापकों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझता था। और काम न किया होने के कारण लेखक भी उसी की तरह ‘बहादुर’ बनने की कल्पना करने लगता।

प्रश्न 8 – पाठ में वर्णित घटनाओं के आधार पर पीटी सर की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर – लेखक ने कभी भी मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में मुस्कुराते या हँसते नहीं देखा था। उनके जितना सख्त अध्यापक किसी ने पहले नहीं देखा था। उनका छोटा कद, दुबला-पतला परन्तु पुष्ट शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यानि चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े बच्चों को भयभीत करने वाली होती थी। उनके जूतों की ऊँची एड़ियों के निचे भी खुरियाँ लगी रहतीं थी। अगले हिस्से में, पंजों के निचे मोटे सिरों वाले कील ठुके होते थे। वे अनुशासन प्रिय थे यदि कोई विद्यार्थी उनकी बात नहीं मानता तो वे उसकी खाल खींचने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। वे बहुत स्वाभिमानी भी थे क्योंकि जब हेडमास्टर शर्मा ने उन्हें निलंबित कर के निकाला तो वे गिड़गिड़ाए नहीं, चुपचाप चले गए और पहले की ही तरह आराम से रह रहे थे।

प्रश्न 9 – विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई गई युक्तियों और वर्तमान में स्वीकृत मान्यताओं के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर – विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में जिन युक्तियों को अपनाया गया है उसमें मारना-पीटना और कठोर दंड देना शामिल हैं। इन कारणों की वजह से बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। परन्तु वर्तमान में इस तरह मारना-पीटना और कठोर दंड देना बिलकुल मना है। आजकल के अध्यापकों को सिखाया जाता है कि बच्चों की भावनाओं को समझा जाए, उसने यदि कोई गलत काम किया है तो यह देखा जाए कि उसने ऐसा क्यों किया है। उसे उसकी गलतियों के लिए दंड न देकर, गलती का एहसास करवाया जाए। तभी बच्चे स्कूल जाने से डरेंगे नहीं बल्कि ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल जाएँगे।

प्रश्न 11 – प्रायः अभिभावक बच्चों को खेल-कूद में ज्यादा रूचि लेने पर रोकते हैं और समय बर्बाद न करने की नसीहत देते हैं। बताइए –
(क) खेल आपके लिए क्यों जरुरी है?
उत्तर – खेल जितना मनोरंजक होता है उससे कही अधिक सेहत के लिए आवश्यक होता है। कहा भी जाता है कि ‘स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का वास होता है।’ बच्चों का तन जितना अधिक तंदुरुस्त होगा, उनका दिमाग उतना ही अधिक तेज़ होगा। खेल-खेल में बच्चों को नैतिक मूल्यों का ज्ञान भी होता है जैसे- साथ-साथ खेल कर भाईचारे की भावना का विकास होता है, समूह में खेलने से सामाजिक भावना बढ़ती है और साथ-ही-साथ प्रतिस्पर्धा की भावना का भी विकास होता है।
(ख) आप कौन से ऐसे नियम-कायदों को अपनाएँगे जिनसे अभिभावकों को आपके खेल पर आपत्ति न हो?

उत्तर – जितना खेल जीवन में जरुरी है, उतने ही जरुरी जीवन में बहुत से कार्य होते हैं जैसे- पढाई आदि। यदि खेल स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, तो पढाई भी आपके जीवन में कामयाबी के लिए बहुत आवश्यक है। यदि हम अपने खेल के साथ-साथ अपने जीवन के अन्य कार्यों को भी उसी लगन के साथ पूरा करते जाएँ जिस लगन के साथ हम अपने खेल को खेलते हैं तो अभिभावकों को कभी भी खेल से कोई आपत्ति नहीं होगी।

NCERT Solutions for Class 10 Hindi Sanchayan Chapter 2 सपनों के-से दिन

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न-अभ्यास

प्रश्न 1.
कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती-पाठ के किस अंश से यह सिद्ध होता है?
उत्तर-
कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती, यह पाठ के इस अंश से सिद्ध होता है हमारे आधे से अधिक साथी राजस्थान तथा हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करते थे। जब वे छोटे थे तो उनकी बोली हमें बहुत कम समझ आती थी, इसलिए उनके कुछ शब्द सुन कर हमें हँसी आती थी, लेकिन खेलते समय सभी एक-दूसरे की बात समझ लेते। इससे सिद्ध हो जाता है कि कोई भाषा आपसी व्यवहार में बाधक नहीं होती।

प्रश्न 2.
पीटी साहब की ‘शाबाश’ फ़ौज के तमगों-सी क्यों लगती थी? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पीटी साहब प्रीतमचंद बहुत कड़क इनसान थे। उन्हें किसी ने न हँसते देखा न किसी की प्रशंसा करते। सभी छात्र उनसे भयभीत रहते थे। वे मार-मारकर बच्चों की चमड़ी तक उधेड़ देते थे। छोटे-छोटे बच्चे यदि थोड़ा-सा भी अनुशासन भंग करते तो वे उन्हें कठोर सजा देते थे। ऐसे कठोर स्वभाव वाले पीटी साहब बच्चों के द्वारा गलती न करने पर अपनी चमकीली आँखें हल्के से झपकाते हुए उन्हें शाबाश कहते थे। उनकी यह शाबाश बच्चों को फौज़ के सारे तमगों को जीतने के समान लगती थी।

प्रश्न 3.
नई श्रेणी में जाने और नई कापियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक को बालमन क्यों उदास हो उठता था?
उत्तर-
नयी श्रेणी में जाकर लेखक का बालमन इसलिए उदास हो जाता था, क्योंकि उसे किताबें अन्य लड़कों द्वारा पढ़ीहुई ही पढ़नी पड़ती थीं। उसके लिए पुरानी किताबों का प्रबंध हेडमास्टर साहब कर देते थे, क्योंकि लेखक के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, जबकि अन्य बच्चे नई कक्षा में नई किताबें खरीदते थे। लेखक का बालमन नई कापियों तथा पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से उदास हो उठता था।

प्रश्न 4.
स्काउट परेड करते समय लेखक अपने को महत्त्वपूर्ण ‘आदमी’ फ़ौजी जवान क्यों समझने लगता था?
उत्तर-
लेखक गुरदयाल सिंह फौज़ी बनना चाहता था। उसने फुल बूट और शानदार वर्दी पहने लेफ्ट-राइट करते फौज़ी जवानों की परेड को देखा था। इसी कारण स्काउट परेड के समय धोबी की धुली वर्दी, पालिश किए बूट तथा जुराबों को पहन वह स्वयं को फौज़ी जवान ही समझता था। स्काउट परेड में जब पीटी मास्टर लेफ्ट राइट की आवाज या मुँह की सीटी बजाकर मार्च करवाया करते थे तथा उनके राइट टर्न या लेफ्ट टर्न या अबाऊट टर्न कहने पर लेखक अपने छोटे-छोटे बूटों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एक कदम पीछे मुड़कर बूटों की ठक-ठक की आवाज़ करते हुए स्वयं को विद्यार्थी न समझकर एक महत्त्वपूर्ण फौजी समझने लगता था।

प्रश्न 5.
हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को क्यों मुअत्तल कर दिया?
उत्तर-
पीटी साहब चौथी कक्षा को फ़ारसी भी पढ़ाते थे। एक दिन बच्चे उनके द्वारा दिया गया शब्द-रूप रट कर नहीं आए। इस पर उन्होंने बच्चों को पीठ ऊँची करके क्रूरतापूर्ण ढंग से मुर्गा बनने का आदेश दिया, तो उस समय वहाँ हेडमास्टर साहब आ गए। यह दृश्य देखकर हेडमास्टर उत्तेजित हो उठे। इसी कारण उन्होंने पीटी साहब को मुअत्तल कर दिया।

प्रश्न 6.
लेखक के अनुसार उन्हें स्कूल खुशी से भागे जाने की जगह न लगने पर भी कब और क्यों उन्हें स्कूल जाना अच्छा लगने लगा?
उत्तर-
‘सपनों के-से दिन’ पाठ के लेखक गुरदयाल सिंह के अनुसार उन्हें तथा उनके साथियों को बचपन में स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था। चौथी कक्षा तक कुछ लड़के को छोड़कर अन्य सभी साथी रोते-चिल्लाते हुए स्कूल जाया करते थे। स्कूल में धोबी पिटाई तथा मास्टरों की डाँट-फटकार के कारण स्कूल उन्हें एक नीरस व भयानक स्थान प्रतीत होता था, जिसके प्रति उनके मन में एक भय-सी बैठ गया था।

इसके बावजूद कई बार ऐसी स्थितियाँ आती थीं जब उन्हें स्कूल जाना अच्छा भी लगता था। यह मौका तब आता था जब उनके पीटी सर स्काउटिंग का अभ्यास करवाते थे। वे पढ़ाई-लिखाई के स्थान पर लड़कों के हाथों में नीली-पीली झंडियाँ पकड़ा देते थे, वे वन-टू-श्री करके इन झंड़ियों को ऊपर-नीचे करवाते थे। हवा में लहराती यह झंडिया बड़ी अच्छी लगती थीं। अच्छा काम करने पर पीटी सर की शाबाशी भी मिलती थी, तब यही कठोर पीटी सर बच्चों को बड़े अच्छे लगते थे। ऐसे अवसर पर स्कूल आना अच्छा व सुखद प्रतीत होता था।

प्रश्न 7.
लेखक अपने छात्र जीवन में स्कूल से छुट्टयों में मिले काम को पूरा करने के लिए क्या-क्या योजनाएँ बनाया करता था और उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में किसकी भाँति ‘बहादुर’ बनने की कल्पना किया करता था?
उत्तर-
लेखक अपने छात्र जीवन में स्कूल से छुट्टियों में मिले काम को पूरा करने के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाया करता था। जैसे-हिसाब के मास्टर जी द्वारा दिए गए 200 सवालों को पूरा करने के लिए रोज़ दस सवाल निकाले जाने पर 20 दिन में पूरे हो जाएँगे, लेकिन खेल-कूद में छुट्टियाँ भागने लगतीं, तो मास्टर जी की पिटाई का डर सताने लगता। फिर लेखक रोज़ के 15 सवाल पूरे करने की योजना बनाता, तब उसे छुट्टियाँ भी बहुत कम लगने लगतीं और दिन बहुत छोटे लगने लगते तथा स्कूल का भय भी बढ़ने लगता। ऐसे में लेखक पिटाई से डरने के बावजूद भी उन लोगों की भाँति बहादुर बनने की कल्पना करने लगता, जो छुट्टियों को काम पूरा करने की बजाय मास्टर जी से पिटना ही अधिक बेहतर समझते थे।

प्रश्न 8.
पाठ में वर्णित घटनाओं के आधार पर पीटी सर की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
पाठ के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि पीटी सर प्रीतमचंद बहुत सरल अध्यापक थे। उनके व्यक्तित्व की विशेषताएँ इस प्रकार हैं

1. बाह्य व्यक्तित्व-पीटी सर अर्थात् प्रीतमचंद ठिगने कद के थे, उनका शरीर दुबला-पतला पर गठीला था। उनका चेहरा चेचक के दागों से भरा था। उनकी आँखें बाज की तरह तेज़ थीं। वे खाकी वर्दी, चमड़े के पंजों वाले बूट पहनते थे। उनके बूटों की ऊँची एड़ियों के नीचे खुरियाँ लगी रहती थीं। बूटों के अगले हिस्से में पंजों के नीचे मोटी सिरों वाले कील ठुके रहते थे।

2. आंतरिक व्यक्तित्व

  • कुशल अध्यापक-प्रीतमचंद एक कुशल अध्यापक थे। वे चौथी श्रेणी के बच्चों को फ़ारसी पढ़ाया करते थे। वे मौखिक अभिव्यक्ति एवं याद करने पर बल दिया करते थे। वे छात्रों को दिन-रात एक करके पढ़ाई करने की शिक्षा दिया करते थे।
  • कुशल प्रशिक्षक-वे कुशल प्रशिक्षक थे। वे छात्रों को स्काउट और गाइड की ट्रेनिंग दिया करते थे वे छात्रों से विभिन्न रंग की झंडियाँ पकड़ाकर हाथ ऊपर-नीचे करके अच्छी ट्रेनिंग दिया करते थे। उनके इस प्रशिक्षण कार्य से छात्र सदा प्रसन्न रहा करते थे। वे उस पर छात्रों द्वारा सही काम करने पर शाबाशी भी देते थे।
  • कठोर अनुशासन प्रिय-प्रीतमचंद अनुशासन प्रिय होने के कारण कठोर अनुशासन बनाए रखते थे। वे छात्रों को भयभीत रखते थे। यदि कोई लड़का अपना सिर इधर-उधर हिला लेता था तो वे उस पर बाघ की तरह झपट पड़ते थे। प्रार्थना करते समय भी वह अनुशासनहीन छात्रों को दंडित करते थे।
  • कोमल हृदयी-प्रीतम चंद बाहर से कठोर किंतु अंदर से कोमल थे। उन्होंने अपने घर में तोते पाल रखे थे, वे उससे बात करते थे और उसे भीगे हुए बादाम भी खिलाया करते थे। इसके अलावा वे छात्रों द्वारा सही काम किए जाने पर उन्हें शाबाशी भी देते थे।

प्रश्न 9.
विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई गई युक्तियों और वर्तमान में स्वीकृत मान्यताओं के संबंध में अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर-
विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई युक्तियाँ इस प्रकार से हैं—पीटी साहब बिल्ला मार-मारकर बच्चों की चमड़ी तक उधेड़ देते थे। तीसरी-चौथी कक्षाओं के बच्चों से थोड़ा-सा भी अनुशासन भंग हो जाता, तो उन्हें कठोर सज़ा मिलती थी ताकि वे विद्यार्थी के जीवन में अनुशासन की नींव दृढ़ बना सकें। इसके साथ-साथ विद्यार्थियों को प्रोत्साहित तथा उत्साहित करने के लिए उन्हें ‘शाबाशी’ भी दी जाती थी। लेकिन वर्तमान में स्वीकृत मान्यताएँ इसके विपरीत हैं। शिक्षकों को आज विद्यार्थियों को पीटने का अधिकार नहीं है इसलिए विद्यार्थी निडर होकर अनुशासनहीनता की ओर बढ़ रहे हैं, क्योंकि आज पहले की भाँति विद्यार्थी शिक्षकों से डरते नहीं हैं। इसके लिए विद्यालय और माता-पिता दोनों जिम्मेवार हैं। बच्चों में अनुशासन का विकास करने के लिए उन्हें शारीरिक व मानासिक यातना देना उचित नहीं। उन्हें प्रेमपूर्वक नैतिक मूल्य सिखाए जाने चाहिए, जिनसे उनमें स्वानुशासन का विकास हो सके।

प्रश्न 10.
बचपन की यादें मन को गुदगुदाने वाली होती हैं विशेषकर स्कूली दिनों की। अपने अब तक के स्कूली जीवन की खट्टी-मीठी यादों को लिखिए।
उत्तर-
बचपन की और विशेषकर स्कूली जीवन की खट्टी-मीठी यादें मन को गुदगुदाती रहती हैं। ये यादें सभी की निजी होती हैं। मेरी भी कुछ ऐसी यादें मेरे साथ हैं। मैं जब नवीं कक्षा में पढ़ती थी मेरी माँ किसी कारणवश बाहर गई थीं। इसलिए मैं बिना गृहकार्य किए और बिना लंच लिए स्कूल पहुँची। पहले तो अध्यापिका से खूब डॉट पड़ी, फिर आधी छुट्टी में मुझे अध्यापिका ने खिड़की के पास खड़ा पाया तो डॉट लगा दी। अगले पीरियड में मुझे बहुत बेचैनी हुई कि अध्यापिका मेरे बारे में क्या सोच रही होंगी, मैं अध्यापिका कक्ष में उनसे मिलने गई। उन्हें देखते ही मेरा रोना छूट गया। उन्होंने रोने का कारण पूछा तो मैंने रोते-रोते उन्हें कारण बताया कि मेरी माता जी घर पर नहीं हैं। उन्होंने मुझे सांत्वना दी फिर मुझे अपने डिब्बे से खाना खिलाया। आज भी मैं इस घटना को याद करती हूँ तो अध्यापिका के प्रति भाव-विभोर हो उठती हूँ।

प्रश्न 11.
प्रायः अभिभावक बच्चों को खेलकूद में ज्यादा रुचि लेने पर रोकते हैं और समय बरबाद न करने की नसीहत देते हैं। बताइए

  1. खेल आपके लिए क्यों जरूरी हैं?
  2. आप कौन से ऐसे नियम-कायदों को अपनाएँगे जिससे अभिभावकों को आपके खेल पर आपत्ति न हो ?

उत्तर-
1. खेल प्रत्येक उम्र के बच्चे के लिए जरूरी हैं। खेल की बच्चे के शारीरिक-मानसिक विकास में अहम भूमिका होती है। खेल बच्चे की सोच को विस्तृत तथा विकसित करते हैं। इनसे बच्चे में सामूहिक रूप से काम करने की भावना का संचार होता है। बच्चे में प्रतिस्पर्धा तथा प्रतियोगिता हेतु आगे बढ़ने की होड़ और दौड़ में भाग लेने की इच्छा पैदा होती है। खेलों में भाग लेने से बच्चे को अपना तथा अपने देश का नाम रोशन करने का सुअवसर प्राप्त होता है।

2. मैं अपने अभिभावकों के लिए वही नियम और कायदों को अपनाऊँगा, जिनसे उनकी भावनाओं को ठेस न पहुँचे इसलिए मैं समय पर खेलूंगा और समय पर खेलकर वापस आऊँगा। खेलने के साथ पढ़ाई पर भी पूरा ध्यान दूंगा। मैं खेलने में उतना ही समय खर्च करूँगा, जितना आवश्यक होगा। अर्थात् मैं केवल वही नियम और कायदे अपनाऊँगा, जिनसे मेरे अभिभावकों को सुख-शांति मिलेगी।

अन्य पाठेतर हल प्रश्न

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘बच्चों की यह स्वाभाविक विशेषता होती है कि खेल ही उन्हें सबसे अच्छा लगता है।’ सपनों के-से दिन नामक पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
‘सपनों के-से दिन’ नामक पाठ से ज्ञात होता है कि लेखक और उसके बचपन के साथी मिल-जुलकर खेलते थे। खेल खेल में जब उन्हें चोट लग जाती थी और धूल एवं रक्त जमे कई जगह से छिले पाँव लेकर घर जाते थे तो सभी की माँ-बहनें और बाप उन पर तरस खाने की जगह बुरी तरह से पिटाई करते थे, फिर भी वे अगले दिन फिर खेलने चले आते थे। इससे स्पष्ट होता है कि बच्चों को खेलना सबसे अधिक अच्छा लगता है।

प्रश्न 2.
लेखक के बचपन के समय बच्चे पढ़ाई में रुचि नहीं लेते थे।-स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
अपने बचपन के दिनों में लेखक जिन बच्चों के साथ खेलता था, उनमें अधिकांश तो स्कूल जाते ही न थे और जो कभी गए भी वे पढ़ाई में अरुचि होने के कारण किसी दिन अपना बस्ता तालाब में फेंककर आ गए और फिर स्कूल गए ही नहीं। उनका सारा ध्यान खेलने में रहता था। इससे स्पष्ट है कि लेखक के बचपन के दिनों में बच्चे पढ़ाई में रुचि नहीं लेते थे।

प्रश्न 3.
लेखक के बचपन में बच्चों के न पढ़ पाने के लिए अभिभावक अधिक जिम्मेदार थे। इससे आप कितना सहमत हैं?
उत्तर-
लेखक के बचपन में अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने का प्रयास नहीं करते थे। परचूनिये और आढ़तीये जैसे कारोबारी भी अध्यापक से कहते थे कि मास्टर जी, हमने इसे कौन-सा तहसीलदार लगवाना है। थोड़ा बड़ा हो जाए तो पंडत घनश्याम दास से मुनीमी का काम सिखा देंगे। स्कूल में अभी तक यह कुछ भी नहीं सीख पाया है। इससे स्पष्ट है कि बच्चों की पढ़ाई न हो पाने के लिए अभिभावक अधिक जिम्मेदार थे।

प्रश्न 4.
गरमी की छुट्टियों के पहले और आखिरी दिनों में लेखक ने क्या अंतर बताया है?
उत्तर-
लेखक ने बताया है कि तब गरमी की छुट्टियाँ डेढ़-दो महीने की हुआ करती थीं। छुट्टियों के शुरू के दो-तीन सप्ताह तक बच्चे खूब खेल-कूद किया करते थे। वे सारा समय खेलने में बिताया करते थे। छुट्टियों के आखिरी पंद्रह-बीस दिनों में अध्यापकों द्वारा दिए गए कार्य को पूरा करने का हिसाब लगाते थे और कार्य पूरा करने की योजना बनाते हुए उन छुट्टियों को भी खेलकूद में बिता देते थे।

प्रश्न 5.
लेखक ने ‘सस्ता सौदा’ किसे कहा है? और क्यों?
उत्तर-
लेखक ने सस्ता सौदा’ उस समय के मास्टरों द्वारा की जाने वाली पिटाई को कहा है। इसका कारण यह है कि उस समय के अध्यापक गरमी की छुट्टियों के लिए दो सौ सवाल दिया करते थे। बच्चे इसके बारे में तब सोचते जब उनकी छुट्टियाँ पंद्रह-बीस बचती। वे सोचते थे कि एक दिन में दस सवाल करने पर भी बीस दिन में पूरा हो जाएगा। दस दिन छुट्टियाँ और बीतने पर वे बीस सवाल प्रतिदिन पूरा करने की बात सोचते पर काम न करते। अंत में मास्टरों की पिटाई को सस्ता सौदा समझकर उसे ही स्वीकार कर लेते थे।

प्रश्न 6.
लेखक ने सातवीं कक्षा तक की जो पढ़ाई की उसमें स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी का योगदान अधिक था। स्पष्ट कीजिए।
अथवा
लेखक की पढ़ाई में हेडमास्टर शर्मा जी का योगदान स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
लेखक को याद है कि उस समय पूरे साल की किताबें एक या दो रुपए में आ जाती थीं फिर भी अभिभावक पैसों की कमी के कारण नहीं दिला पाते थे। ऐसी स्थिति में उसकी पढ़ाई भी तीसरी-चौथी में छूट जाती, परंतु स्कूल के हेडमास्टर जो किसी अमीर परिवार के बच्चे को पढ़ाने जाते थे, वे उसकी पुरानी किताबें प्रतिवर्ष लेखक को दे दिया करते थे। इससे लेखक ने सातवीं तक की पढ़ाई कर ली। इस तरह उसकी पढ़ाई में स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी का विशेष योगदान था।

प्रश्न 7.
पीटी मास्टर प्रीतमचंद को देखकर बच्चे क्यों डरते थे?
उत्तर-
पीटी मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में कभी भी हमने मुसकराते या हँसते न देखा था। उनका ठिगना कद, दुबला पतला परंतु गठीला शरीर, माता के दागों से भरा चेहरा और बाज-सी तेज आँखें, खाकी वरदी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले बूट-सभी कुछ ही भयभीत करने वाला हुआ करता। उनका ऐसा व्यक्तित्व बच्चों के मन में भय पैदा करता और वे डरते थे।

प्रश्न 8.
लेखक और उसके साथी प्रीतमचंद की दी गई सज़ा वाला कौन-सा दिन आजीवन नहीं भूल सके?
अथवा
फ़ारसी की कक्षा में मास्टर प्रीतमचंद ने किस तरह शारीरिक दंड दिया जो बच्चों को आजीवन याद रहा?
उत्तर-
मास्टर प्रीतमचंद बच्चों को चौथी कक्षा में फ़ारसी पढ़ाते थे। बच्चों को फ़ारसी अंग्रेज़ी से भी कठिन लगती थी। एक सप्ताह बाद ही प्रीतमचंद ने बच्चों को शब्द रूप याद करके आने और उसे जबानी सुनाने को कहा पर कठिन होने के कारण कोई भी लड़का न सुना सका। यह देख प्रीतमचंद को गुस्सा आया और उन्होंने बच्चों को मुरगा बना दिया। उनके द्वारा लड़कों को। मुरगा बनाने का ढंग बड़ा ही कष्टदायी होता था। उनके द्वारा दिया गया यह शारीरिक दंड बच्चे आजीवन नहीं भूल सके।

प्रश्न 9.
हेडमास्टर ने प्रीतमचंद के विरुद्ध क्या कार्यवाही की?
उत्तर-
हेडमास्टर शर्मा जी ने देखा कि प्रीतमचंद ने छात्रों को मुरगा बनवाकर शारीरिक दंड दे रहे हैं तो वे क्रोधित हो उठे। उन्होंने इसे तुरंत रोकने का आदेश दिया। उन्होंने प्रीतमचंद के निलंबन का आदेश रियासत की राजधानी नाभा भेज दिया। वहाँ के शिक्षा विभाग के डायरेक्टर हरजीलाल के आदेश की मंजूरी मिलना आवश्यक था। तब तक प्रीतमचंद स्कूल नहीं आ सकते थे।

प्रश्न 10.
प्रीतमचंद के निलंबन के बाद भी बच्चों के मन में उनका डर किस तरह समाया था?
उत्तर-
विद्यालय के लड़के पीटी मास्टर प्रीतमचंद की पिटाई से इतने डरे हुए थे कि यह पता होते हुए भी कि पीटी मास्टर प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर ‘बहाल’ नहीं करेंगे तब तक वह स्कूल में कदम नहीं रख सकते, जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो बच्चों की छाती धक्-धक करती फटने को आती। परंतु जब तक शर्मा जी स्वयं या मास्टर नौहरिया राम जी कमरे में फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, उनके चेहरे मुझए रहते। इस तरह उनका डर बच्चों के मन में जमकर बैठ चुका था।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
लेखक ने अपने विद्यालय को हरा-भरा बनाने के लिए किए गए प्रयासों का वर्णन किया है। इससे आपको क्या प्रेरणा मिलती है?(मूल्यपरक प्रश्न)
उत्तर-
लेखक के विद्यालय में अंदर जाने के रास्ते के दोनों ओर अलियार के बडे ढंग से कटे-छाँटे झाड उगे थे। उसे उनके नीम जैसे पत्तों की गंध अच्छी लगती थी। इसके अलावा उन दिनों क्यारियों में कई तरह के फूल उगाए जाते थे। इनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी कलियाँ होती थीं जिनकी महक बच्चों को आकर्षित करती थी। ये फूलदार पौधे विद्यालय की सुंदरता में वृद्धि करते थे। इससे हमें यह प्रेरणा मिलती है कि हमें भी अपने विद्यालय को स्वच्छ बनाते हुए हरा-भरा बनाने का प्रयास करना चाहिए। हमें तरह-तरह के पौधे लगाकर उनकी देखभाल करना चाहिए और विद्यालय को हरा-भरा बनाने में अपना योगदान देना चाहिए।

प्रश्न 2.
लेखक और उसके साथियों द्वारा गरमी की छुट्टियाँ बिताने का ढंग आजकल के बच्चों द्वारा बिताई जाने वाली छुट्टियों से किस तरह अलग होता था? (मूल्यपरक प्रश्न)
उत्तर-
लेखक और उसके साथी गरमी की छुट्टियाँ खेलकूद कर बिताते थे। वे घर से कुछ दूर तालाब पर चले जाते, कपड़े उतार पानी में कूद जाते और कुछ समय बाद, भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर, रेत के ऊपर लेटने लगते। गीले शरीर को गरम रेत से खूब लथपथ कर उसी तरह भागते, किसी ऊँची जगह से तालाब में छलाँग लगा देते। रेत को गंदले पानी से साफ़ कर फिर टीले की ओर भाग जाते।

याद नहीं कि ऐसा, पाँच-दस बार करते या पंद्रह-बीस बार करते हुए आनंदित होते। आजकल के बच्चों द्वारा ग्रीष्मावकाश पूरी तरह अलग ढंग से बिताया जाता है। अब तालाब न रहने से वहाँ नहाने का आनंद नहीं लिया जा सकता। बच्चे घर में रहकर लूडो, चेस, वीडियो गेम, कंप्यूटर पर गेम जैसे इंडोर गेम खेलते हैं। वे टीवी पर कार्टून और फ़िल्में देखकर अपना समय बिताते हैं। कुछ बच्चे माता-पिता के साथ ठंडे स्थानों या पर्वतीय स्थानों की सैर के लिए जाते हैं।

प्रश्न 3.
मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल से क्यों निलंबित कर दिया गया? निलंबन के औचित्य और उस घटना से उभरने वाले जीवन-मूल्यों पर विचार कीजिए। (मूल्यपरक प्रश्न)
उत्तर-
मास्टर प्रीतमचंद सख्त अध्यापक थे। वे छात्रों की जरा-सी गलती देखते ही उनकी पिटाई कर देते थे। वे छात्रों को फ़ारसी पढ़ाते थे। छात्रों को पढ़ाते हुए अभी एक सप्ताह भी न बीता था कि प्रीतमचंद ने उन्हें शब्द रूप याद करके आने को कहा। अगले दिन जब कोई भी छात्र शब्द रूप न सुना सका तो उन्होंने सभी को मुरगा बनवा दिया और पीठ ऊँची करके खड़े होने के लिए कहा। इसी समय हेडमास्टर साहब वहाँ आ गए। उन्होंने प्रीतमचंद को ऐसा करने से तुरंत रोकने के लिए कहा और उन्हें निलंबित कर दिया।

प्रीतमचंद का निलंबन उचित ही था, क्योंकि बच्चों को इस तरह फ़ारसी क्या कोई भी विषय नहीं पढ़ाया जा सकता है। शारीरिक दंड देने से बच्चों को ज्ञान नहीं दिया जा सकता है। इससे बच्चे दब्बू हो जाते हैं। उनके मन में अध्यापकों और शिक्षा के प्रति भय समा जाता है। इससे पढ़ाई में उनकी रुचि समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 4.
‘सपनों के-से दिन’ पाठ में हेडमास्टर शर्मा जी की, बच्चों को मारने-पीटने वाले अध्यापकों के प्रति क्या धारणा थी? जीवन-मूल्यों के संदर्भ में उसके औचित्य पर अपने विचार लिखिए। (मूल्यपरक प्रश्न) (CBSE Delhi 2013)
उत्तर-
‘सपनों के-से दिन’ पाठ में वर्णित हेडमास्टर शर्मा जी बच्चों से प्यार करते थे। वे बच्चों को प्रेम, अपनत्व, पुरस्कार आदि के माध्यम से बच्चों को अनुशासित रखते हुए उन्हें पढ़ाने के पक्षधर थे। वे गलती करने वाले छात्र की भी पिटाई करने के पक्षधर न थे। जो अध्यापक बच्चों को मारने-पीटने या शारीरिक दंड देने का तरीका अपनाते थे, उनके प्रति उनकी धारणा अच्छी न थी। ऐसे अध्यापकों के विरुद्ध वे कठोर कदम उठाते थे। ऐसे अध्यापकों को स्कूल में आने से रोकने के लिए वे उनके निलंबन तक की सिफ़ारिश कर देते थे।

हेडमास्टर शर्मा जी का ऐसा करना पूरी तरह उचित था, क्योंकि बच्चों के मन से शिक्षा का भय निकालने के लिए मारपीट जैसे तरीके को बच्चों से कोसों दूर रखा जाना चाहिए। मारपीट के भय से अनेक बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं तो बहुत से डरे-सहमें कक्षा में बैठे रहते हैं और पढ़ाई के नाम पर किसी तरह दिन बिताते हैं। ऐसे बच्चों के मन में अध्यापकों के सम्मान के नाम पर घृणा भर जाती है।

प्रश्न 5.
‘सपनों के-से दिन’ पाठ के आधार पर बताइए कि बच्चों का खेलकूद में अधिक रुचि लेना अभिभावकों को अप्रिय क्यों लगता था? पढ़ाई के साथ खेलों का छात्र जीवन में क्या महत्त्व है और इससे किन जीवन-मूल्यों की प्रेरणा मिलती है? (मूल्यपरक प्रश्न) (CBSE Foreign 2014)
उत्तर-
‘सपनों के-से दिन’ पाठ में जिस समय का वर्णन हुआ है उस समय अधिकांश अभिभावक अनपढ़ थे। वे निरक्षर होने के कारण शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझते थे। इतना ही नहीं वे खेलकूद को समय आँवाने से अधिक कुछ नहीं मानते थे। अपनी इसी सोच के कारण, बच्चे खेलकूद में जब चोटिल हो जाते और कई जगह छिला पाँव लिए आते तो उन पर रहम करने की जगह पिटाई करते। वे शारीरिक विकास और जीवन-मूल्यों के उन्नयन में खेलों की भूमिका को नहीं समझते थे, इसलिए बच्चों को खेलकूद में रुचि लेना उन्हें अप्रिय लगता था।

छात्रों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ खेलों का भी विशेष महत्त्व है। ये खेलकूद एक ओर हमारे शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक हैं, तो दूसरी ओर सहयोग की भावना, पारस्परिकता, सामूहिकता, मेल-जोल रखने की भावना, हार-जीत को समान समझना, त्याग, प्रेम-सद्भाव जैसे जीवन-मूल्यों को उभारते हैं तथा उन्हें मजबूत बनाते हैं। इन्हीं जीवन-मूल्यों को अपना कर व्यक्ति अच्छा इनसान बनता है।

पूर्व वर्षों के प्रश्नोत्तर

2015
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Question 1.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 1
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 1a

2014
लघुत्तरात्मक प्रश्न

Question 2.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 2
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 2a
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 2b

Question 3.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 3
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 3a

Question 4.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 4
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 4a

Question 5.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 5
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 5a

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Question 6.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 6
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 6a

Question 7.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 7
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 6a

Question 8.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 8
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 8a
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 8b

2013
लघुत्तरात्मक प्रश्न

Question 9.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 9
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 9a

Question 10.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 10
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 10a

Question 11.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 11
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 11a

Question 12.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 12
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 3a

Question 13.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 13
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 13a

Question 14.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 14
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 14a

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Question 15.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 15
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 15a
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 15b

Question 16.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 16
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 16a

Question 17.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 17
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 17a

Question 18.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 18
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 18a
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 18b

2012
लघुत्तरात्मक प्रश्न

Question 19.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 19
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 19a

Question 20.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 20
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 20a

Question 21.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 21
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 21a

Question 22.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 22
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 22a

Question 23.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 23
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 23a

Question 24.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 24
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 24a

Question 25.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 25
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 25a

2011
लघुत्तरात्मक प्रश्न

Question 26.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 26
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 26a

Question 27.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 27
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 27a

Question 28.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 28
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 21a

Question 29.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 29
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 29a

Question 30.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 30
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 2a
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 2b

Question 31.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 31
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 31a

Question 32.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 32
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 32a
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 32b

2010
लघुत्तरात्मक प्रश्न

Question 33.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 33
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 4a

Question 34.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 34
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 24a

Question 35.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 35
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 35a

Question 36.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 36
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 36a

Question 37.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 37
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 37a

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Question 38.
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 38
Answer:
Chapter Wise Important Questions CBSE Class 10 Hindi B -सपनों के-से दिन 38a

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